श्रद्धांजलि/ एक था कामरेड 

श्रद्धांजलि/ एक था कामरेड 
सुनील राय कामरेड।

एक था कामरेड। जी हां।वह कोई और नहीं बल्कि, सुनील राय कामरेड था। वही सुनील राय कामरेड जिसे मैंने पहली बार लगभग तीस वर्ष पूर्व फ़िरोज़पुर छावनी में हुए एक राजनितिक कार्यक्रम में देखा था। मैं भी उस समारोह को कवर करने के लिए गया था। वहां मैंने देखा की एक नौजवान नोटबुक पर नेता का भाषण लिखता जा रहा था। उत्सुकतावश मैंने पूछ ही लिया," आप कौन?" उस युवा ने कहा,"मैं सुनील राय कामरेड"। "अच्छा तो आप हैं ।", मैंने कहा।  उन दिनों में उनके समाचार दैनिक `पंजाब केसरी' (जालंधर) में प्रमुखता से छप रहे थे। वह भी अधिकतर आंतकवादी घटनाओं से सम्बंधित। मैंने भी अपना परिचय दिया। कुछ पल पश्चात ऐसा मह्सूस ही न हुआ की हम लोग पहली बार मिले हैं। देखते ही उन्होंने अपनी डायरी के पन्ने एक-एक करके पलटने शुरू किये और जो कुछ लिखा था उसे खबर के रूप में बताना शुरू कर दिया। और, उनकी यह आदत अंत तक बनी रही। जब भी कभी मिलना हुआ उन्होंने ऐसा ही किया। 
मुझे याद है की आंतकवाद के दिनों में उन्होंने निडर होकर पत्रकारिता की। अब भी वैसे ही बेख़ौफ़ होकर अपना काम कर रहे थे। आंतकवाद के उस दौर में उन्होंने कभी दिन-रात का अंतर महसूस नहीं किया। उस दौर में मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट इत्यादि नहीं हुआ करते थे। अगर खबर के साथ फोटोज़ भी होते तो तुरंत रेलगाड़ी या  बस में सवार हो जाया करते थे। रात के वक़्त भी ट्रक में लिफ्ट लेकर खबर पहुँचाने अखबार के दफ्तर में पहुँच जाते थे। `पंजाब केसरी' (जालंधर) में उनका एक कॉलम "तैं की दर्द न आया" उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ था। यह कॉलम अखबार में प्रतिदिन प्रकाशित हुआ करता था और प्रतिदिन आंतकवाद से पीड़ित परिवारों के दर्द को बयां किया जाता था। 
फिर परिस्थितियां बदलीं और वे पूरी तरह से `पंजाब केसरी' (दिल्ली) के साथ जुड़ गए। मुझे लुधियाना में रहते हुए लगभग 22 वर्ष हो गए हैं। मुझ से कुछ वर्ष पहले वे लुधियाना आ गए थे। लुधियाना में उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई। आज के दौर में भी अगर उन्हें कहीं खालिस्तान के पक्ष या विपक्ष में खबर मिलती थी तो वे उसे पंजाब केसरी (दिल्ली) में प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया करते थे। उनकी कार्यशैली जुझारू किस्म की थी जोकि कम ही पत्रकारों में देखने को मिलती है। अपनी बाइक पर सवार होकर वे कहीं भी निकल जाते थे। रास्ता कितना भी लंबा हो, उन्होंने कभी परवाह नहीं की। 
मैंने कुछ वर्ष पूर्व एक काव्य संग्रह लिखा था -`बारिश की बूँदें'।  उन्होंने एक बार आग्रह किया तो उसकी एक प्रति उन्हें भी भेंट की।  उसके बात जब कभी भी में उनके दफ्तर गया तो मेरी पुस्तक उनकी कुर्सी के पीछे बने रैक में हमेशा दिखाई दी। एक दिन मैं उनसे मिलने उनके दफ्तर गया तो मुझे पंजाब केसरी (दिल्ली) का एक अंक निकाल कर दिखाने लगे।  उन्होंने बताया कि अखबार में सीमा प्रहरियों पर उनकी एक लंबी और विस्तृत रिपोर्ट सिलसिलेवार प्रकाशित हो रही है। उन्होंने पंजाब बॉर्डर का दौरा करके यह रिपोर्ट लिखी थी। और, इस रिपोर्ट की एक कड़ी में उन्होंने मेरी काव्य पुस्तक में से एक कविता का मेरे नाम के साथ उल्लेख किया था। यह मेरे लिए एक `सरप्राइज' से कम नहीं था। 
`पंजाब केसरी' के लिए एक पत्रकार के तौर पर कार्य करने के साथ-साथ वे दिल्ली की कई मैगजीन्स के लिए लेख भी लिखते रहे जोकि अधिकतर क्राइम पर आधारित होते थे।  मैंने महसूस किया कि क्राइम भी उनका प्रिय विषय रहा। कभी-कभार वे पी.आर. का काम भी करते दिखे। अक्सर प्रेस नोट भेजने के बाद वे फ़ोन कर दिया करते थे। संबंधों को किस तरह बनाये रखना है, इसके बारे में वे अच्छी तरह जानते थे। जब कभी भी किसी को मिलते थे तो गर्मजोशी से मिला करते थे। उनकी एक और बात का भी यहां ज़िक्र करना चाहूंगा कि उन्होंने शुरुआत से लेकर पूरा रिकॉर्ड संभाल कर रखा हुआ था और वह भी पूरी तरह सिलसिलेवार।  कुछ एक बार तो उन्होंने पुराना रिकॉर्ड निकाल कर मुझे दिखाया भी था।  आजकल पत्रकारों में ऐसा रुझान कंही दिखाई देता है।    
मेरे इस लेख को पढ़ कर शायद कुछ एक लोगों को अच्छा नहीं लगेगा। इसका कारण यह है कि उन्होंने शायद कामरेड की कोई और तस्वीर अपने दिमाग में बना रखी है। लेकिन, मैं यहां कहना चाहूँगा कि अच्छाई और बुराई हरेक इंसान में होती है। और, वे भी एक इंसान ही थे।  जिनका जीवन कई उतार-चढ़ाव से गुजरा और पूरा जीवन संघर्षमयी रहा। वैसे भी यहां मैं उनके पत्रकारिता से संबंधित कार्यों की बात कर रहा हूँ न कि उनके निजी जीवन की। अगर पत्रकारिता के नाम पर उन्होंने कभी कोई लाभ ले भी लिया होगा तो उसमें कोई बड़ी बात नहीं।  यहां तो ऐसे भी पत्रकार हैं जो पत्रकारिता के नाम पर बिज़नेस करते रहे हैं। लेकिन, कामरेड ने पत्रकारिता के लिए अपना जीवन भी कई बार दांव पर लगाया था। पत्रकारिता के लिए उनमें एक जूनून था।      
कुछ महीने पहले उन्होंने मुझे फ़ोन पर बताया था कि उनकी तबियत ठीक नहीं है। उस समय वे कोरोना की  बीमारी से उभर रहे थे। अस्पताल से घर लौट कर मुझे फ़ोन किया था। लेकिन मेरा उनसे मिलना संभव न हो पाया। फिर कल (17 मई, 2022) की सुबह अचानक उनके निधन का पता चला। कल शाम को ही एक ग्रुप में एक दिन पहले का उनके द्वारा पोस्ट किया गया एक मैसेज पढ़ा - "दोस्तों व साथियों, पिछले 40 साल से अधिक समय से ईमानदारी से खोजी पत्रकारिता को अपना जितना हो सका, योगदान देता आ रहा हूँ। फील्ड में रिपोर्टिंग दौरान कोविड का शिकार होने के कारण कोविड के दुष्प्रभाव के तौर पर कैंसर की चपेट में आ गया। 6 महीने में ईलाज में सबकुछ खत्म हो गया। आज गम्भीर हालात में फिर सीएमसी हॉस्पिटल लुधियाना इमरजेंसी में भर्ती हूँ। मेरी आर्थिक स्थिति अब अपने स्तर पर और इलाज करवा पाने में समर्थ नहीं है। क्या कोई सरकारी, निजी कोई मेडिकल फंडिंग करवा सकते है तो जरूर करवाये। मेरा यह फोन मेरे परिवार के पास होता है। मुझे अपने साथियों/दोस्तों पर भरोसा है कि जैसे पत्रकारिता व पत्रकार भाईचारे सहित शहर के किसी भी संकट में उन्होंने मुझे सबसे पहली कतार में खड़ा पाया। वैसे है आज वो भी मेरे लिए खड़े होंगे।-सुनील राय कॉमरेड लुधियाना"। सुनील राय कामरेड द्वारा पोस्ट किया गया अंतिम मैसेज स्वयं ही बहुत कुछ कह जाता है। इसलिए मेरी किसी भी तरह की टिप्पणी का यहां कोई अर्थ नहीं। 
अंत में केवल इतना ही कहना चाहूंगा। वह कोई और नहीं ...एक कामरेड था ....।
-मनोज धीमान