हिंदी अपनाइए, न शरमाइए 

हिंदी अपनाइए, न शरमाइए 
कमलेश भारतीय।

-*कमलेश भारतीय 
आज हिंदी दिवस है । सब तरफ कुछ दिन पहले से ही हिंदी की याद सताने लग जाती है हरबार, हर साल । यह मेरा सौभाग्य रहा कि मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ जो हिंदी प्रेमी था और मेरे ननिहाल इससे भी बढ़कर आर्य समाज से जुड़े थे । आर्य समाज और हिंदी का नाता सब जानते हैं कि कितना मजबूत जोड़ है बिल्कुल फेविकोल जैसा । इस तरह अहिंदी भाषी प्रांत पंजाब से होते हुए भी मैं हिंदी के ज्यादा करीब आया और आता चला गया । जहां तक कि मेरी सारी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई । और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि जिस हिंदी की एम ए करते मुझे मेरे ही बी एड के प्राध्यापक ने डराया कि इसमें रोज़गार नहीं है , नौकरी नहीं है मेरा सौभाग्य कि उसी हिंदी ने मुझे एक दिन भी बेरोजगार न रहने दिया । आज भी आपके सामने सम्मान पूर्वक हिंदी के चलते ही खड़ा हूं । इस तरह हिंदी न केवल रोज़गार बल्कि साहित्य, मनोरंजन और राजनीति की भाषा है ।
यह बात भी सभी जानते हैं कि हिंदी दिवस क्यों चौदह सितम्बर को मनाया जाता है -ठीक इसी दिन सन् 1949 में हमारे देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान मिला था । इसीलिए हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है और अब तो हिंदी पखवाड़ा ही मनाया जाने लगा है यानी आज से हिंदी दिवस शुरू होकर तीस सितम्बर तक चलता रहेगा और मनाया जाता रहेगा । पर दुख की बात है कि आम तौर पर हिंदी पखवाड़े के साथ श्राद्ध पक्ष भी आ जाता है तो कहीं हम इसे सिर्फ श्रद्धा के रूप में ही तो नहीं मनाते ? या इसे अपनाने के लिए मनाते हैं ?
अब बात करते हैं कि स्वतंत्रता पूर्व हिंदी को किसने प्रोत्साहित किया ? हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद जी ने । संयोग देखिए कि दोनों महानुभाव गुजरात से संबंध रखते थे । जहां महात्मा गांधी ने नवजीवन समाचार पत्र शुरू करवाया और हिंदी के सुधार के लिए अनेक प्रयत्न किये । वहीं आर्य समाज की ओर से स्वामी दयानंद के प्रयास भी कम नहीं रहे । उनका ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में ही है और आज भी प्रतिवर्ष लाखों प्रतियां लोगों तक पहुंचती हैं । इसी प्रकार महात्मा गांधी की आत्मकथा- सत्य के प्रयोग भी देश विदेश में लोकप्रिय है और हर वर्ष इसकी भी न जाने कितनी प्रतियां बिकती हैं । मैं खुद इसकी प्रति महात्मा गांधी के सावरमती आश्रम से खरीद कर लिया था जब अहमदाबाद में एक लेखक शिविर लगाने गया था । वैसे एक और सुखद संयोग भी है कि इन दिनों देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात से हैं लेकिन वे भी हिंदी के प्रचारक हैं । हिंदी का इस देश में कितना महत्त्व है यह आप इस बयान से समझिये जो हमारे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिया । उन्होंने कहा कि मैं राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहता था लेकिन हिंदी भाषी न होना मेरी सबसे बड़ी रुकावट बन गया । ममता बनर्जी भी हिंदी को ज्यादा नहीं बोल पातीं । 
स्वतंत्रता पूर्व लाला लाजपत राय ,  मदन मोहन मालवीय , जवाहर लाल नेहरु  लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, अशफाक , सुखदेव, आदि क्रांतिकारियों व नेताओं ने हिंदी को ही स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा । इस तरह हिंदी स्वतंत्रता आंदोलन की आधारभूमि बनी रही । माखन लाल चतुर्वेदी , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और सबसे बढ़कर भारतेंदु हरिश्चंद्र आदि ने हिंदी को जनमानस तक पहुंचाने में सब कुछ अर्पण कर दिया । भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने तो लेखक मंडली बनाई और घर का सारा पैसा हिंदी के प्रचार प्रसार में लगा दिया । नये समय में नरेंद्र कोहली के उपन्यासों ने भी काफी पाठक बनाये । हास्य कवियों काका हाथरसी और सुरेंद्र शर्मा आदि ने भी हिंदी को जन जन तक पहुंचाया ।
अब आइए स्वतंत्रता के बाद हिंदी की स्थिति पर जब इसे राजभाषा घोषित कर दिया गया तब लगा कि अब हिंदी के दिन फिरेंगे लेकिन हुआ इसके विपरीत । हिंदी जन भावना और देश के स्वाभिमान व बलिदान देने वालों की भाषा न रही बल्कि इसकी जगह ले ली अंग्रेजी ने क्योंकि मैकाले महाशय यह षड्यंत्र रच गये थे कि रोज़गार अंग्रेजी पढ़ने पर ही मिलेगा और इस तरह अंग्रेज़ी ने हमारी हिंदी को दबाने का काम शुरू किया । हमारे अंग्रेजी स्कूलों की संख्या बढ़ती गयी और हिंदी माध्यम के स्कूलों की संख्या घटती चली गयी । इनकी संख्या घटने से साफ है कि हिंदी का प्रयोग भी कम होता गया । अब नयी पीढ़ी अंग्रेजीमय पीढ़ी है । अंग्रेजी बोलना शान की प्रतीक है । रोज़गार मिले या न मिले लेकिन अंग्रेजी आनी चाहिए । हाय , हैलो बोलना आना चाहिए । गरीब से गरीब परिवार हिंदी स्कूल में अपने बच्चों को न पढ़ा कर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने के इच्छुक हैं ।  इस पीढ़ी के चलते ही हिंदी साहित्य के पाठक कम होने लगे हैं जिस पीढ़ी को हिंदी भी नहीं आती या कामचलाऊ हिंदी आती है तो वह पीढ़ी हिंदी साहित्य के प्रति उत्सुक कैसे होगी ? हिंदी की पुस्तकों के नाम चाहे न आएं लेकिन हैरी पाॅटर का नाम आता है । स्पाइडर-मैन का काॅमिक्स पता है लेकिन शक्तिवान या चाचा चौधरी का नहीं ।  
हिंदी की सबसे बड़ी कमी यह बताई और गिनाई जाती है कि इससे रोज़गार  नहीं मिलता और न ही विज्ञान सीखा जा सकता है । क्या कल्पना चावला हिंदी पढ़कर ही अंतरिक्ष तक नहीं पहुंची थी ? पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम बच्चों के बीच हिंदी बोलते थे । जहां तक रोज़गार की बात है तो हिंदी पत्रकारिता एक बड़ा रोजगार देने वाली साबित हुई है । आज हिंदी के अखबार अंग्रेजी अखबारों से प्रसार संख्या में आगे निकल गये हैं और विश्वसनीय भी बन गये हैं । इनके चलते बड़ी संख्या में रोज़गार मिलने लगा है । दूरदर्शन, आकाशवाणी और मीडिया चैनल भी हिंदी के चलते ही लोकप्रिय होते हैं । यही क्यों हिंदी फिल्मों ने भी रोज़गार के द्वार खोले हैं । दक्षिण भारतीय अभिनेता अभिनेत्रियां भी हिंदी बोलने सीख कर करोड़ों करोड़ों रुपये कमाते हैं।  फिर कौन कहता है कि हिंदी मे रोज़गार नहीं ? बड़ी बड़ी विदेशी कम्पनियों को हिंदी अपनानी पड़ रही है ताकि उनकी कम्पनी की जानकारी आम जनता तक पहुंच सके । 
आप यह जानकर हैरान होंगे कि हिंदी सीखने के लिए एक समय चंद्रकांता संतति की सीरीज ने लोगों को मजबूर कर दिया था । ऐसे साहित्य की आज भी जरूरत है । फिल्मों में तो दूसरी भाषाओं मे रिमेक बनने लगे हैं ।
आज फिर हिंदी दिवस है । आइए हिंदी आपनाइए , बिल्कुल न शरमाइए   । हिंदी हमारी है और हम हिंदी के ।।हिंदी के बिना हम अधूरे ।
-*पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।