समाचार विश्लेषण/अर्णब, मीडिया और हमारा समाज
-कमलेश भारतीय
रिपब्लिक टीवी के चीफ एडिटर अर्णब गोस्वामी को मां बेटे को खुदकुशी के लिए दो साल पूर्व उकसाने के आरोप में मुम्बई पुलिस ने न केवल गिरफ्तार किया बल्कि दो सप्ताह की न्यायिक हिरासत में भी कोर्ट के आदेश से भेज दिया गया । इस पर काफी हाय-तौबा मच रही है । कह रहे हैं कि पुलिस घर से हाथापाई कर घसीट कर ले गयी ऐसे जैसे किसी आतंकवादी को पकड़ रही हो । यह वीडियो भी काफी वायरल हो रहा है । अर्णब के साथ ऐसा किसी कवरेज को लेकर नहीं बल्कि जिस इंटीरियर डिजाइनर ने इनके ऑफिस व स्टुडियो को डिजायन किया था उसका मेहनताना 5, 33करोड़ रुपये न देने के आरोप में गिरफ्तार किया है । यही नहीं मेहनताना मांगने पर धमकियां देना भी शुरू कर दिया जिससे परेशान होकर आखिर डिजायनर ने अपनी वृद्धा मां के साथ आत्महत्या ही कर ली । यह दो साल पहले की घटना है और एफआईआर भी दर्ज हुई लेकिन मुम्बई पुलिस को जब लगातार निकम्मा करार देते रहे अर्णब गोस्वामी तब पुलिस ने भी यह पुरानी फाइल खोल ली । अब इसे महाराष्ट्र सरकार द्वारा आपातकाल करार दिया जा रहा है । मीडिया यानी चौथे स्तम्भ पर हमला और पुलिस की गाड़ी मे भी अर्णब विक्टरी साइन बना रहे हैं । सत्य की जीत । कैसा सत्य ? किसका सत्य ? क्या पत्रकारिता में भी सात खून माफ हैं ? अभी तो दो ही की बात सामने आई है ।
पत्रकारिता को किस जगह ले आए अर्णब गोस्वामी? यह शायद वे भी नही जानते । खासकर सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने की मुहिम चलाते चलाते वे खुद ही रिपोर्टर , पुलिस , सीबीआई, एनसीबी ही नहीं कोर्ट भी बन गये । न तारीख , न अपील न कोई दलील । बस । ऑन द लाइव कवरेज फैसले सुनाने लगे । इससे हुआ यह कि सुशांत सिंह राजपूत का केस पृष्ठभूमि में चला गया और चैनल्ज की टीआरपी की लड़ाई प्रमुख हो गयी । पत्रकारिता एक गला काट स्पर्धा बन कर रह गयी । हम आगे । नहीं हम आगे । यह कैसी पत्रकारिता ? कैसा पक्ष और किसका पक्ष ?
अब इसे चाहे मीडिया या चौथे स्तम्भ पर हमला कहिए पर क्या निजी घटनाओं से भी छूट मिल सकती है मीडिया को ? यह तो नितांत निजी मामला है कि आपने किसी का मेहनताना ही नहीं दिया । फिर यह कैसे मीडिया पर हमला हुआ? अर्णब ने पुलिस को सहयोग करने से इंकार किया तो पुलिस को घसीट कर ले जाने के लिए विवश होना पड़ा । जो लोग आपातकाल की बात कर रहे है । वे कभी हाथरस और राहुल गांधी के पर किए व्यवहार पर भी गौर करें ? क्या विपक्ष की आवाज़ दबाने में सहयोग करना भी आपातकाल नहीं ? यूपी सरकार की हर गलती माफ । भाजपा सरकार की गलतियां माफ । अरविंद केजरीवाल पर कड़ी नज़र । यह सब आपातकाल नहीं तो क्या है ? हमारा समाज भी इस झूठी पत्रकारिता को झेल रहा है । क्या विरोध नहीं करोगे ऐसी पत्रकारिता का ? यदि ऐसे न किया तो आने वाली पीढ़ी माफ नहीं करेगी कि उनके बड़े बुजुर्ग आंख मूंद कर सब देखता रहै जैसे महाभारत के योद्धा राज दरबार में द्रौपदी को लुटते देखते रहे,,,,