एक और नई ग़ज़ल पेश करते है अश्विनी जेतली
अश्विनी जेतली पत्रकार होने के साथ साथ एक अच्छे शायर भी हैं
इधर-उधर जो थी भटकी, तलाश मेरी थी
तुझ पे जा के जो थी अटकी, तलाश मेरी थी
उसके जूड़े से गिरा फूल, यूं लगा मुझको
उसने ज़ुल्फ़ों से जो थी झटकी, वो लाश मेरी थी
इसी इक बात पे इतराता रहा, बरतनघाड़ा
सटी उस धाक पे जो थी मटकी, तराश मेरी थी
मेरे ग़मों को ही जीने लगा था मेरा हबीब
उसकी आँखों में जो थी सटकी, हताश मेरी थी
तेरी ख़ातिर उगाया अन्न, ख़ुद भूखा सोया
पेड़ पर कल जो थी लटकी, वो लाश मेरी थी