ग़ज़ल / अश्विनी जेतली 

ग़ज़ल / अश्विनी जेतली 
अश्विनी जेतली।

बुझाने की थी ज़िद्द,  मगर वो जल रहा है
हवा हैरान है,  चिराग़ अब भी जल रहा है

 

वो तो मस्त है,  बांसुरी की धुन में अपनी
नीरो को नहीं फ़िक्र,  कि रोम जल रहा है

 

परिंदे शाख से लिपटे हुए बोले, 'नहीं उड़ना' 
कभी ये घर हमारा था शजर जो जल रहा है

 

लगाई नफ़रतों की आग धर्म के ठेकेदारों ने
कि मेरे शहर का हर बशर उसमें जल रहा है

 

बचा ले ऐ खुदाया अब इसे तू और जलने से
ना जाने क्यूँ कई दिन से समंदर जल रहा है