ग़ज़ल / अश्विनी जेतली
फ़लक में लालिमा देखी, जो दिन ढलते हुए देखा
सुबह को शाम के रंग में जब बदलते हुए देखा
सपनों को कभी सच में ना बदलते हुए देखा
देखा तो बस ग़मों को फूलते फलते हुए देखा
ढलती उम्र का उस पल हुआ अहसास हमको
कल शाम जब था शाम को ढलते हुए देखा
मन को हुई तसल्ली कि चलो कोई तो है अपना
साए को अपने साथ जब चलते हुए देखा
लगा यूँ कि ये तो दिल जलाया है मिरा रब्ब ने
किसी गरीब का जब झोंपडा जलते हुए देखा
तमाशा था महज़ उनके लिए, ना भूख थी मायने
बजा के तालियां बच्ची को रस्सी पे चलते हुए देखा