लघुकथा /...और मैं नाम लिख देता हूं
दीवाली से एक सप्ताह पहले अहोई माता का त्योहार आता है ।
तब तब मुझे दादी मां जरूर याद आती हैं । परिवार में मेरी लिखावट दूसरे भाई बहनों से कुछ ठीक मानी जाती थी । इसलिए अहोई माता के चित्र बनाने व इसके साथ परिवारजनों के नाम लिखने का जिम्मा मेरा लगाया जाता ।
दादी मां एक निर्देशिका की तरह मेरे पास बैड जातीं । और मैं अलग अलग रंगों में अहोई माता का चित्र रंग डालता । फिर दादी मां एक कलम लेकर मेरे पास आतीं और नाम लिखवाने लगतीं । वे बुआ का नाम लिखने को कहतीं ।
मैं सवाल करता - दादी , बुआ तो जालंधर रहती है ।
- तो क्या हुआ ? है तो इसी घर की बेटी ।
फिर वे चाचा का नाम बोलतीं । मैं फिर बाल सुलभ स्वभाव से कह देता - दादी ,,,चाचा तो ,,,
- हां , हां । चाचा तेरे मद्रास में हैं ।
- अरे बुद्धू । वे इसी घर में तो लौटेंगे । छुट्टियों में जब आएंगे तब अहोई माता के पास अपना नाम नहीं देखेंगे । अहोई माता बनाते ही इसलिए हैं कि सबका मंगल , सबका भला मांगते हैं । इसी बहाने दूर दराज बैठे बच्चों को माएं याद कर लेती हैं ।
बरसों बीत गए । इस बात को । अब दादी मां रही नहीं ।
जब अहोई बनाता हूं तब सिर्फ अपने ही नहीं सब भाइयों के नाम लिखता हूं । हालांकि वे अलग अलग होकर दूर दराज शहरों में बसे हुए हैं । कभी आते जाते भी नहीं । फिर भी दीवाली पर एक उम्मीद बनी रहती है कि वे आएंगे ।
,,,,और मैं नाम लिख देता हूं ।
- कमलेश भारतीय