बड़े दावों की खुली पोल
-*कमलेश भारतीय
आखिर लोकसभा चुनाव के परिणाम आ गये और देश ने देखा कि एग्जिट पोल और चार सौ पार की पोल खुल गयी। बड़े बड़े नेताओं के बड़े-बड़े बोल धरे के धरे रह गये और जनता ने अपना जनादेश सुना दिया। जिस राम मंदिर में जनवरी में प्राण प्रतिष्ठा कर कांग्रेस को निमंत्रण ठुकरा देने पर कैसा गया, उसी अयोध्या में हार पचाना कोई आसान नहीं। यह हार हज़म नहीं होने वाली और वैसे भी उत्तर प्रदेश ने जो रंग बदला और जो तेवर दिखाये, उससे तो बुलडोजर बाबा के पसीने छूट गये। उत्तर प्रदेश में यह बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिला सबसे बड़ी बात कि बसपा प्रमुख मायावती का प्रभाव बिल्कुल ज़ीरो पर पहुंच गया। एक समय मायावती, जयललिता और ममता बनर्जी तीन देवियां बहुचर्चित थीं लेकिन जयललिता रही नहीं और मायावती दस साल तक जनता के पक्ष में कहीं दिखी नहीं तो ज़ीरो पर आ गयीं। बस, एक ममता बनर्जी ने अपनी साख बरकरार रखी और पश्चिमी बंगाल में अकेली ही डटी रहीं और भाजपा के अश्वमेध घोड़े को थाम लिया। उत्तर प्रदेश में कहा जा रहा है कि बसपा का वोट बैंक कांग्रेस व समाजवादी पार्टी की ओर खिसक गया यानी बहन मायावती के पांव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। कांशीराम का संघर्ष बेकार कर दिया। एक समय जो प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन गयीं थीं, वही मायावती इस तरह कठपुतली मात्र बनतीं दिखीं, जिससे इनके समर्थकों का दिल टूट गया। अखिलेश फिर नायक बनकर लौटे।
महाराष्ट्र की बात करें तो जिस अघाड़ी सरकार को गिराया था उसी अघाड़ी सरकार के दलों को लोगों ने चुन लिया। इस तरह सरकारें गिराने का जवाब जनता ने वोट से दिया। ऐसा ही जवाब चंडीगढ़ में भी मिला, वहां भी मेयर चुनाव में जो खेला किया गया था, जनता ने उसे नकारते कांग्रेस के मनीष तिवारी को चुनना बेहतर समझा। हिमाचल में भी जो कांग्रेस के छह विधायक भाजपा के साथ हिमाचल सरकार गिराने गये थे और अयोग्य घोषित कर दिये गये थे, वे भी दोबारा चुनाव में उतरे, जिनमें से चार चुनाव हार गये यानी उनको लोगों ने दलबदल की सजा दे दी और इस तरह हिमाचल सरकार को जीवनदान मिल गया।
आपातकाल की बड़ी महिमा कर भाजपा ने ऐसे लोगों को सम्मानित भी किया था जो जेल मे रहे थे लेकिन खुद अघोषित आपातकाल लगाने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा इस बार चुनाव में। यह ईडी, सीबीआई और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं को तोते बना देना भी जनता को रास नहीं आया। कांग्रेस का लोकतंत्र बचाओ नारा काम करता दिखा और लोगों ने लोकतंत्र बचाने की कोशिश की, जो चेतावनी जैसा परिणाम आ गया। अब तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू और बिहार के सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार के हाथ में सत्ता का स़तुलन चला गया है। भाजपा अपने दम पर सरकार नहीं बना रही, पिछली बार की तरह। अब इसे चंद्र बाबू और नीतीश कुमार के सहारे की कदम कदम पर जरूरत रहेगी और ये दोनों कभी भी पलटी मारने के लिए जाने जाते हैं यानी एक अनिश्चितता तो सिर पर सवार रहेगी। सबसे बड़ी बात कि वह खुला हाथ नहीं रहेगा शासन में, जो दस साल तक रहा। उड़ीसा में भाजपा को सफलता मिली और बीजू पटनायक ज्योति बसु का लम्बे समय तक मुख्यमंत्री बनने का कीर्तिमान तोड़ने से वंचित रह गये। पंजाब में अकाली दल और भाजपा को पैर रखने की जगह भी नहीं मिली। दो गज़ ज़मीन भी न मिली पंजाब में। दिल्ली ने अरविन्द केजरीवाल की हवा भी निकाल दी और भाजपा को सिर आखों पर बिठाया। यही जनता है, यही जनता जनार्दन का फैसला है। कभी आपातकाल के बाद का चुनाव याद कीजिये और सोचिये कि आपातकाल के विरोध में कैसे इंदिरा गाँधी और चौ बंसीलाल तक को धरती पर ला दिया था जनता ने, कुछ ऐसा ही अंडर करंट था इस बार, जिसे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भांपने में असफल रहा, वैसे ही जैसे आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी अनुमान नहीं लगा पाई थीं । जनता जनार्दन का फेसला, इसके आगे नतमस्तक चाहे इंदिरा गांधी हों या फिर कोई और इसके आगे नतमस्तक होना पड़ता। बलवीर चीमा के बहुत प्रसिद्ध गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं:
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे शहर के!
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।