लघुकथा/बिना आईने वाला घर
गिरीश की शादी को तीन दशक से अधिक का समय हो गया था। पत्नी अब भी उसका पूरा ख्याल रखती थी। बस पहले जैसा लगाव नहीं था। उमंग नहीं थी। तरंग नहीं थी। कमी शायद उसकी पत्नी में थी या फिर उस में, वह समझ पाने में असमर्थ था। वे घर के ऐसे दो बर्तन थे जो बिना कोई आवाज़ किये घर में मौजूद रहते। ख़ामोशी से सब काम किये जाते। बिना आपस में टकराये। हर रात की तरह आज भी घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। एकाएक गिरीश कुछ अजीब से आवाज़ें सुन कर उठ बैठा। उसने दीवार के साथ अपने कान लगा दिए। आवाज़ें फ्लैट की दूसरी तरफ से आ रही थीं। सुबह साथ वाले फ्लैट में नए किरायेदार आये थे। नवविवाहित जोड़ा था। गिरीश आवाज़ें सुन कर परेशान हो गया। उसने देखा उसकी पत्नी गहरी नींद में थी। वह बिस्तर से उठा। उसने वाशरूम में जाकर आईना देखा। उसके सिर के बाल और दाढ़ी बिक्कुल सफेद हो चुके थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे आईना सच बता रहा है या दिल में उठ रही उमंगें झूठी हैं। नहीं। उसका दिल झूठा नहीं हो सकता। कभी नहीं। उसने उसी समय आईने को उतारा और उसे डस्टबिन में फेंक दिया। अगली सुबह वह नया आईना लेने घर से निकला। ऐसा आईना जो सच बोले। उसके दिल की तरह। वह घर से ऐसा निकला कि दोबारा लौट नहीं पाया। उसकी पत्नी अब भी उसके लौट आने की उम्मीद लिए हुए है बिना आईने वाले घर में।
-मनोज धीमान।