डॉ अजय शर्मा द्वारा रामेश्वरी नादान के उपन्यास "दूसरी पारी" की समीक्षा

डॉ अजय शर्मा द्वारा रामेश्वरी नादान के उपन्यास

रामेश्वरी नादान का उपन्यास "दूसरी पारी" मिला, सोच रहा था कोई ऐसी कहानी होगी, जिसमें एक शादी सफल नहीं हुई,  दूसरी कर ली। या फिर, प्यार में विफलता मिली तो शादी के बाद दूसरी पारी शुरू हो गई। लेकिन सच मानिए, उपन्यास पढ़ने के बाद मेरी सारी धारणाएं धाराशाही हो गईं, क्योंकि जिस मुद्दे को लेकर उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है, वह सच में किसी की भी सोच के परे की बात हो सकती है। उपन्यास पढ़ने बैठा, तो उपन्यास ने ऐसा जकड़ा, सारा  उपन्यास एक ही सीटिंग में पढ़ गया। हालांकि बहुत कम उपन्यास एक ही सीटिंग में पढ़ पाया हूं। यह उपन्यास उनमें से एक है। उपन्यास जिंदगी की उस सच्चाई के बारे में लिखा गया है, जहां जिंदगी हमें उस दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती है और खुद ही सवाल करती है, लेकिन उसका जवाब हमारे पास नहीं होता। अचानक जिंदगी ऐसे मोड़ पर खड़ा कर देती है, जहां सवाल का जवाब ढूंढने की जरूरत भी नहीं पड़ती, क्योंकि हमें उसका जवाब मिल जाता है और हम किसी अच्छे मोड़ की तरफ मुड़ जाते हैं। बिना सोचे, बिना समझे और बिना किसी की परवाह किए हुए। सच यह है कि हमें एक आशा की किरण दिखाई देती है और हमें लगता है, जिस अंधेरे में हम लोग जी रहे हैं उससे बेहतर है उस मोड़ की तरफ मुड़ जाना।  वहां उजाले की किरण साफ नजर आ रही है। उपन्यास में भी सरस्वती जैसे की कई पात्र समाज में और उपन्यास में  आखिर तक फैले हुए हैं, जिनकी पहली पारी किसी भी कारण के चलते कामयाब नहीं हो पाई, लेकिन दूसरी पारी में उजाला ही उजाला है। पात्रों की संख्या कम है, जिसके चलते उपन्यास में जटिलता भी कम है। कमला को विदेशी धरती भी पराई लगती है। उसकी पीड़ा निज की नहीं, सब की पीड़ा नजर आती है। सागर श्रीवास्तव उपन्यास की ऐसी कड़ी हैं, जो वृद्धाश्राम चलाते हुए सबके दुख-दर्द समझते हैं और "दूसरी पारी" नामक एक संस्था चलाते हैं। आश्रम में जब अधेड़ उम्र के व्यक्ति बच्चों जैसी हरकतें करते हैं, तो मन में गुदगुदी उत्पन्न होती है और लगता है समाज बदलाव की दिशा की ओर बढ़ रहा है, बिना किसी की परवाह किए हुए। इस उपन्यास में बताया गया है, स्त्री जब विश्वास करती है तो अंधविश्वास की तरह करती है। लेकिन जब उसके आत्म-सम्मान को ठेस लगती है, उसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है। कहानी मोड़ मुड़ती जाती है, लेकिन बच्चों के सामने एक रहस्य बनाकर रखना भी उनकी मजबूरी है, क्योंकि समाज में इस बात की स्वीकृति कम मिल रही है। रामेश्वरी नादान जी ने समाज की, उस नब्ज को टटोलने की कोशिश की है, जो अभी संधिकाल में खड़ी है। यह एक साहस और जुर्रत का काम है। रामेश्वरी नादान ने उस साहस को बड़ी बखूबी से निभाया है और समाज के हर उस व्यक्ति को अपनी मन मर्जी की जिंदगी जीने के लिए प्रेरित किया है। दूसरी पारी में उन्होंने बीज बो दिए हैं, लेकिन उनका अंकुरित होना बाकी है। मुझे उम्मीद है कि उपन्यास बीजों को अंकुरित होने में दूसरी पारी उपन्यास जरूर सहायक होगा। इस तरह के नए प्रयास होने चाहिए। इस तरह के मुद्दों में समाज सीधे तौर पर जुड़ता है और जुड़ती हैं उसकी समस्याएं। जब समाज सीधा उपन्यास का हिस्सा बनता है,  वह उपन्यास अपने आप में महत्वपूर्ण होता है। अगर आप भी सभी समस्याओं को दिल से महसूस करना चाहते हैं, आपको इस उपन्यास से गुजरना होगा। मैं रामेश्वरी नादान को उनके बढ़िया प्रयास के लिए बधाई व शुभकामनाएं देता हूं, ताकि वह भविष्य में भी इस तरह के उपन्यास लिख कर अपने पाठकों को लाभान्वित करती रहें। 

डॉ. अजय शर्मा