पुस्तक समीक्षा: वंदना बाजपेयी का काव्य संग्रह "जीवन रेखा का गणित"
`वंदना बाजपेयी की कविताएं भी उनकी कहानियों की तरह जीवन में छोटी-छोटी खुशियां तलाशती हुई आगे बढ़ती हैं और जीवन उन्हीं में बहने लगता है।'
वंदना बाजपेयी एक मात्र ऐसी साहित्यकार हैं, जो लगभग हर लेखक की किताब का नोटिस फेसबुक पर किसी भी रूप में जरूर लेती हैं। मैं तो इतना आलसी हैं कि ऐसा चाहकर भी नहीं कर पाता। पुस्तक मेले में मिलने की इच्छा अधूरी रह गई, क्योंकि उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। खैर, अब बात करता हूं, उनके नए कविता संग्रह "जीवन रेखा का गणित" पर। वंदना बाजपेयी की कविताएं भी उनकी कहानियों की तरह जीवन में छोटी-छोटी खुशियां तलाशती हुई आगे बढ़ती हैं और जीवन उन्हीं में बहने लगता है। कविताओं का मूल स्वर है, हमें चलना भी है और जिम्मेदारियों का वहन भी करना है, भले ही वह सामाजिक हों या नैतिक। ऐसा अक्सर होता है, हम लोग बड़ी खुशी को पाने के लिए, छोटी खुशी को नजरअंदाज कर देते हैं। इसलिए संग्रह की कविताएं निराशा में आशा का दीप लेकर आगे बढ़ती हैं और प्रेम के विविध रूपों को साकार करती हुई कविताएं कभी नदियों से प्रेम की बात करती हैं, कभी पुरुष से प्रकृति तक प्रेम की बात को मजबूती से रखती हैं। कभी प्रेम सिमटता है, कभी उदारता लिए नजर आता है। कहीं तो रेशा-रेशा होकर अलग खड़ा होना चाहता है, कहीं समूह के साथ खड़ा दिखता है। कभी सिमटना चाहता है, कभी विस्तार लेना चाहता है, कभी सृष्टि में, कभी दृष्टि में। उनके संग्रह का नाम जीवन का रेखा गणित भी इस बात का प्रमाण है कि जीवन की रेखाएं कभी सीधी नहीं होती। बात सही भी है, क्योंकि जब जिंदगी की रेखा सीधी हो जाए, तो जीवन की गति रुक जाती है, ठीक उसी तरह जैसे ई. सी. जी. की रेखाएं सीधी हो जाएं, जीवन में श्वास खत्म हो जाते हैं। शायद यह जरूरी है, जिंदगी की गाड़ी आगे खींचने के लिए। कविताएं पढ़ने के बाद भी यही बात मन में आती है, जिंदगी नमक के बिना अधूरी है और ज्यादा नमक भी सेहत के लिए हानिकारक है। रिश्तों में भी नमक सामान्य मात्रा में हो, जिंदगी जीने के मायने बदल जाते हैं।
"बज चुका है पांचजन्य" की बात करूं तो इसमें अर्जुन के विषाद को पूरी तरह से दिखाया गया है। हम सभी अर्जुन हैं। अगर हम चाहते हैं, हमें कृष्ण जैसा सारथी मिले, हमें स्वयं को स्वयं से खड़ा होना सीखना होगा। देखिए कविता की पंक्तियां
कब का बज चुका है पांजन्य
अब तो उठो अर्जुन
खींच लो लगाम
और ले चलो रथ को युद्धभूमि के बीचों-बीच
जहां से साफ-साफ दे सकें दोनों सेनाएं
बार-बार नहीं आएंगे मधुसूदन
पढ़ाने, पढ़ाए हुए पाठ को
अब पल-पल बदलते इस धर्मयुद्ध में
तुम्हें ही सींखना है
सही और गलत के मध्य निर्णय लेना
कांपते पैरों और छूटते गांडीव के साथ
सत्य के पक्ष में खड़े होने से पहले
सीखना है
स्वयं से स्वयं के लिए खड़ा होना
कविता भले ही छोटी है, लेकिन बहुत बड़ा अर्थ समेटे हुए है अपने अंदर। भागमभाग की जिंदगी में जिस तरह से हम लोग भाग रहे हैं और भागते ही जा रहे हैं और हमें पता नहीं रुकना कहां है, ठहरना कहां है, उस मानसिकता पर गहरी चोट करती है कविता। खैर मायके आई हुई बेटियों में बेटी के पैदा होते ही मां की चिंता बढ़ जाती है। और बेटियों को पराया धन समझ लिया जाता है। मैं मानता हूं कि बेटियों के प्यार को बयान करना बहुत मुश्किल है, लेकिन पांच भागों मे बेटियों के प्यार को अलग-अलग रूपों में बहुत सुंदर ढंग से बयान किया गया है। मां बेटी का प्यार मां के सीने में जीने की आरजू भर देता है। बूढ़ी मां पूरी एनर्जी से भर जाती है और दूसरे भाग में आखिरी पंक्तियां तस्वीर का दूसरा पहलू भी उजागर कर देती हैं। देखिए उनकी कविता की बानगी
हुलस कर मिलती चार आंखों में
छिप जाता है एक झूठ
बदल गया है बहुत कुछ
इसी कविता का तीसरा रूप जब सामने आता है, तो कविता भावुक कर देती है। बेटी को भी कहीं न कहीं यह एहसास हो चुका है, शादी के बाद घर पराया हो चुका है। अब वह अपने भाई से मां जैसी उम्मीद रखती है और कविता में यह कथन देखिए
आसमान में निहारते हुए
मायके आई हुई बेटियां
बस. इतना ही
सुनना चाहती हैं
भाई के मुंह से
जब मन आए चली आना
यह घर तुम्हारा अपना ही है
किवता चार में घर की विदाई के समय जो गांठ में चावल बांधे थे, वह मायके की आखिरी निशानी है और एक बिंब के रूप में हमारे सामने आती है। जो हमरे समाज की हकीकत को बयान करती है। चावलों की गांठ बताती है, कैसे लड़की का आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। उसका सब कुछ बदल जाता है। उसे दूसरा जीवन मिल जाता है। भले ही चावल जिंदगी की आपाधापी में कहीं न कहीं निकल जाते हैं, लेकिन एक गांठ मन में रह जाती है, जो कभी नहीं खुलती। देखिए कुछ पंक्तियां
दो चावल के दाने
एक में पिता का प्यार
और दूसरे में भाई का लाड़
धोते पटकते
निकल जाते हैं, चावल के दाने
परगोत्री घोषित करते हुए
पर बंधी रह जाती है
गांठ
मन के बंधन की तरह
यह गांठ
मायके में आई हुई बेटियों का पांचवा रूप में बेटी के बहाने पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठियों में समा लेने की कोशिश की गई है। यह कविता उन समस्याओं पर अंगुली धरती है, जो आज मुंह बाय सब जगह खड़ी हैं। उनकी नब्ज को टटोलती यह कविता बहुत कुछ कहने में कामयाब है। सच में पहाड़ पर चढ़ना और पहाड़ से गिरना बहुत कुछ सिखा देता है।
कहां है बरगद का पेड़
वहां तो है
ठंडी बीयर की दुकान
जहां झूलते नहीं झूमते हैं
और नाना जी की बेंत तभी तो नहीं
वहां टंगी है एक तस्वीर
पहाड़ों की
झट से गिरती हूं मैं पहाड़ से
चीखती हूं बेतहाशा
सारी कविताओं का सुर एक है लेकिन उसका परिदृश्य बदलता है। "बस, एक कप चाय का प्याला" कविता में जीवन के सच के अनुभव का चित्रण हमारे सामने प्रस्तुत कर देने में सक्षम है।
बस, एक कम चाय का प्याला
कह देता है
हमारे-तुम्हारे
रिश्तों का सारा सच
"नमक का गणित' भी इसी तरह कविता में आता है। नमक की गुत्थी सुलझाना आज भी उतनी ही मुश्किल है जितनी पहले हुआ करती थी। पति का ताना बुढ़ा गई हो...सारे दिन के कामकाज के बाद आज भी भी एक स्त्री नमक का गणित सुलझाते हुए बिस्तर पर लेटती है और सुबह के नमक के इंतजार में उसकी रात कट जाती है क्योंकि उसे पता है, फिर से सुबह नाश्ता करते समय कह दिया जाएगा सब्जी में नमक ज्यादा है और थाली को हवा में उछाल दिया जाएगा।
सबुह-सवेरे जब उसने
उछाल दी थी दाल की कटोरी हवा में
यह कहते हुए कि
तुम्हे आज तक खाना बनाना नहीं आया।
फिर नमक ज्यादा
यही वह बिंदु है, जहां स्त्री को लगता है वह मनुष्य न होकर कोई वस्तु हो, जिसे हर बार किसी न किसी बात को लेकिन ताना सुनना पड़ता है। शायद यही कारण है कहीं न कहीं जिंदगी से प्रेम माइनस होने लगता है और प्रेम की व्यापकता कम होने लगती है। वैसे भी प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है। यही बात पुरजोर तरीके से अपनी कविता "प्रेम व्यापक है" में उठाती हुई कहती हैं, प्रेम जोर से चिल्लाने का नाम नहीं है। प्रेम तो महसूस करने का नाम है। जब कोई भी प्रेम में होता है तो कहने की जरूरत नहीं होती। प्रेम प्रेम को समझ जाता है क्योंकि प्रेम में इतनी तमीज तो होती है जो ढाई आखर के इस शब्द को समझ सकता है और उसकी व्यापकता का महसूस कर सकता है।
कविताएं पढ़ते हुए कब आखिरी कविता "संतुलन का गणित" आ गई पता ही नहीं चला। जिंदगी के गणित को साधते हुए जिंदगी बीतती है। हर इंसान के अपने रास्ते हैं, अपनी रेखाएं हैं। उन्हीं रेखाओं पर आपको चलना है, दौड़ना है और विश्राम करना है। उन्हीं पर उलझना है उन्हीं पर सुलझना है। मोह में सारा संसार फंसा हुआ है । सारी महाभारत मोह के इर्द-गिर्द ही है। जब मोह में संतुलन खो जाता है, (भले ही वह प्रेम का हो, सामाजिक हो, नैतिक हो या जिम्मेदारियों का हो )तो जिंदगी का संतुलन भी खोने लगता है। अंत मे यही कहूंगा, हमें चलना भी है और संतुलन बनाकर भी रखना है भले ही वह सामाजिक नैतिक या दैहिक ही क्यों न हो। मैं इतने अच्छे कविता संग्रह के लिए वंदना बाजपेयी जी को दिल से मुबारकबाद देता हूं।
डॉ. अजय शर्मा