समाचार विश्लेषण/क्रिसमस, वाजपेयी और धर्मवीर भारती
-कमलेश भारतीय
आज क्रिसमस है और सेंटा क्लाॅज के आने का इंतजार ! सुनते हैं कि सेंटा क्लाॅज आता है और बच्चों के लिए तोहफे लाता है । यह कितना सच है ? कोई नहीं जानता लेकिन लोग एक दूसरे को तोहफे देकर खुद ही सेंटा क्लाॅज बन जाते हैं और एक बहुत प्यारी कहानी भी है -क्रिसमस का उपहार जिसमें पति पत्नी एक दूसरे को त्योहार देने के लिए कैसे कैसे कुर्बानी देते हैं ! यह कहानी सबने जरूर पढ़ी होगी । यानी यह भी संदेश है कि आपको एक दूसरे के प्यार में कुछ कुर्बान करना चाहिये । प्रेम इसी का नाम है और इसी को प्यार कहते हैं । आज जैसा लिव इन वाला प्यार नहीं , जिसमें टुकड़े टुकड़े कर दिये जाते हैं । उफ् ! ऐसा प्यार ! तौबा ! तौबा ! आजकल राहुल गांधी निकले हैं यह संदेश लेकर कि नफरत के कारोबार के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोल रहा हूं ।
आज अटल बिहारी वाजपेयी को याद करने का दिन भी है । वे ऐसे नेता रहे जो सद्भाव से , प्यार से चले । विपक्ष को भी सराहने वाले ! एक वोट से सरकार बचा सकते थे लेकिन कहा कि सरकार बचाने के लिये वोट खरीदूंगा नहीं ! सरकार रहे या जाये ! सरकार गयी लेकिन अटल बिहारी आज भी अपने सिद्धांतों के लिये याद किये जाते हैं । खुद विपक्ष में रहते जब बंगला देश अस्तित्व में आया तब इंदिरा गांधी को दुर्गा कहने में संकोच नहीं किया ।
साहित्य के प्रति भावुक और खुद रहे पत्रकार ! मुझे इसलिये भी याद आते हैं कि अस्वस्थ होने के बावजूद हमें केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पुरस्कार न केवल बांटे बल्कि सभी रचनाकारों से बातचीत भी की और मेरा संग्रह भी मंगवाया ! पुरस्कार की राशि भी दुगुनी यानी एक लाख रुपये करने की घोषणा की ! यह सम्मान मेरे लिए बहुत स्मरणीय रहा । सम्मान से भी ज्यादा देने वाले अटल याद रहे और याद आते हैं ! साहित्य का इतना सम्मान ! फिर किसने किया ? वैसा समारोह ही दोबारा नहीं हुआ । न कोई प्रधानमंत्री इसके लिए समय निकाल पाया ! अब सम्मान की राशि का चैक घर भेज दिया जाता है और इतिश्री कर ली जाती है । क्या कोई बात से ऐसे ही सम्मान से पुरस्कार देगा ?
क्रिसमस के दिन ही याद आते हैं धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ! जो इलाहाबाद में पले बढ़े, शिक्षा हुए और फिर मुम्बई जाकर बने धर्मयुग के संपादक और ऐसे यशस्वी संपादक कि अपना लेखन कुर्बानी दिया । कहां तो गुनाहों का देवता उपन्यास के लेखक और कहां अंधायुग जैसे नाटक के रचनाकार ! कहां गुल की बन्नो और बंद गली का आखिरी मकान जैसी कहानियों के रचयिता ! कहां धर्मयुग का संपादन ! सभी पत्रिकाओं को पीछे छोड़कर आगे ही आगे ले गये धर्मयुग को ! इतना आगे ले गये कि इनकी सेवानिवृति के बाद कोई उस पत्रिका को उस मुकाम पर रख ही न पाया ! आखिरकार धर्मयुग बंद हो गया ! धर्मयुग के लेखकों से वे निरंतर जुड़े रहते थे । हर वर्ष नये से नया कार्ड डाक में मिलता था अंर तीन माह बाद एक गत कि आप कोई रोना हमें भेजिए ! क्या सभी संपादक ऐसा कर पाये ? नहीं । परंपरायें ऐसी बनाईं कि कोई इसका निर्वाह न कर पाया !
आज क्रिसमस , अटल बिहारी वाजपेयी और धर्मवीर भारती को याद कर रहा हूं ।
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।