कलाओं का जीवन में योगदान

कलाओं का जीवन में योगदान

-*कमलेश भारतीय
कविता, कहानी, पेंटिंग, संगीत, गाना, बजाना, नाचना आदि सभी कलाओं का हमारे जीवन में क्या योगदान है? आजकल डाॅक्टर लोग भी मरीज का सिर्फ दवाइयों से ही इलाज नहीं करते बल्कि इन कलाओं का सहारा भी लेते देखे जा रहे हैं । वर्जीनिया टेक यूनिवर्सिटी की डायरेक्टर जूलिया कहती हैं कि तेज़ गति वाली गतिविधि के दौरान इंसानी दिमाग का अध्ययन करना लंबे समय से असंभव है पर डांस पर लम्बे समय पर एक अध्ययन के अनुसार इससे कंपन और कठोरता कम होती है । ब्रेन की चोट, बौद्धिक हानि, सेरेबल पाल्सी और डिमेंशिया से  जूझ रहे लोगों को भी डांस से फायदा हुआ है । शोधकर्त्ता कहते हैं कि दूसरों के साथ डांस करने से इसके सकारात्मक प्रभाव देखने को मिले हैं ।  इससे अपनेपन और विश्वास की भावना पैदा होती है ! 
देखा जाये तो यह बात सिर्फ डांस पर लागू नहीं होती बल्कि हर कला यही और बिल्कुल ऐसा ही प्रभाव छोड़ती है हमारे जीवन में। जो लोग लेखकों, कलाकारों और पेंटर आर्टिस्ट्स से पूछते रहते हैं कि आखिर लिखकर या पेंटिंग बना कर क्या मिल जाता है, कोई काम नहीं करते? सीधे शब्दों में समाज की नज़र में चार पैसे कमाने वाला कोई धंधा क्यों नहीं करते, तो यह है इसका जवाब कि ये कलाकार लोग समाज को जीने लायक बनाने में अपना योगदान देते हैं। निर्मल वर्मा के शब्दों में अंधेरे समाज को रोशनी का एक टुकड़ा देते हैं ये लेखक, कलाकार, पेंटर आर्टिस्ट्स! इनके योगदान को कम करके मत आंकिये। मुंशी प्रेमचंद ने भी तो यही कहा था कि निरा मनोरंजन करना हमारा उद्देश्य नहीं बल्कि समाज को राह दिखाने वाली मशाल हैं हम। राजनीति को भी रास्ता दिखाते हैं। 
एक बार लाल किले की सीढ़ियां चढ़ते पंडित जवाहरलाल नेहरू थोड़ा लड़खड़ा गये तो साथ चलते प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर ने संभाल लिया । पंडित जी ने जब आभार व्यक्त किया, तब दिनकर ने कहा कि साहित्य का काम राजनीति और समाज को गिरने से बचाना ही तो है ! यही काम लेखक करते आ रहे हैं ! संत कवियों में कबीर, सूरदास और तुलसीदास ने यही काम किया। कबीर‌ ने सामाजिक विसंगतियों और धार्मिक पाखंड पर निरंतर चोट की । तुलसीदास ने ऐसे रामराज्य की कल्पना की कि आज तक हर शासक वैसा रामराज्य लाने का सपना देखता है ! कालिदास ने कितना कुछ दिया। कितने लेखकों का योगदान है। शहीद भगत सिंह साहित्य में रमे रहते थे। लेखकों ने कलम से स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान दिया । मुंशी प्रेमचंद की सोज़ ए वतन उनके सामने ही जलाकर राख कर दी गयी। आतंकवाद के जमाने में पाव, सुरजीत पातर ने खूब लिखा और पाश को अपनी जान भी गंवानी पड़ी। लेखक अपने विचारों के लिए जान भी गंवाने से पीछे नहीं हटते। ओशो‌ ने कितना कहा और उनके अनुज स्वामी शैलेंद्र भी कहते हैं कि हंसता, नाचता और गाता ही धर्म है। तो लेखकों के योगदान को कम न आंकिये। प्रसिद्ध शायर साहिर लुध्यानवी ने भी कहा है :
 दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं   !! 

लेखक समाज का विष पीकर उसे अमृत बनाकर लौटाते हैं। शहर शहर में  होने वाले साहित्योत्सव यही काम तो कर रहे हैं। हिसार का रंग आंगन नाट्योत्सव नागरिकों की मनोदशा बदल देता है । साहित्य मनुष्य में संवेदना जगाता है और मनुष्य को मनुष्यता सिखाता है। 
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी