समाचार विश्लेषण/सब जगह कोरोना का रोना, न बचा कोई सुरक्षित कोना
-कमलेश भारतीय
जैसे फिल्में बनती हैं -ज्वैल थीफ रिटर्न्स या टाइगर जिंदा है , ऐसे ही कोरोना रिटर्न्स और कोरोना जिंदा है जैसी फिल्में देखने को मिल रही हैं असली ज़िंदगी में । सब जगह कोरोना का ही रोना । कुछ भी कोरोना से छूटा नहीं। सब जगह छुप छुप कर मार कर रहा है । कभी रात को मच्छर के साथ जूगनू टिमटिमाता तो कहते कि मच्छर अपना शिकार ढूंढने टाॅर्च लेकर आया है । पर यह कोरोना तो न टाॅर्च और न कोई मोमबत्ती लेकर आता है । बस । किधर से आता है और किधर जाता है , होने पर ही पता चलता है ।
हर जगह , हर राज्य , हर कहीं कोरोना ही कोरोना । पश्चिमी बंगाल में राहुल के ऐलान के बाद कुछ तो अनुसरण किया दूसरी पार्टियों ने । ममता बनर्जी ने कोलकाता शहर में अपनी पार्टी की सभी रैलियां रद्द कर दीं और भाजपा ने हर रैली में पांच सौ तक ही लोगों के आने की बात कही है। फिर चाहे प्रधानमंत्री की ही जन सभा क्यों न हो । चलो, इस बहाने पश्चिमी बंगाल की जनता का कुछ कल्याण तो हुआ। नहीं तो पश्चिमी बंगाल जीतने के चक्कर में कोरोना को फैलने का पूरा मौका दिया जा रहा था । अभी निर्वाचन आयोग से ममता बनर्जी की गुहार बाकी है कि बाकी बचे तीन चरणों के चुनाव एक साथ करवा दीजिए पर निर्वाचन आयोग का पर जूं नहीं रेंगने दे रहा । वैसे भी निर्वाचन आयोग अपनी आचार संहिता का पालन करवाने में भी चूक रहा है । हर पार्टी इसके दुआरे शिकायतें लेकर पहुंचती रहती है । निर्वाचन आयोग कि मानता नहीं । पार्टियों की बेक़रारी को मानता ही नहीं । निर्वाचन आयोग है कि मानता नहीं ।
इधर फैक्ट्रियों से भी प्रवासी मजदूरों का पलायन फिर से शुरू हो चुका है । गांव/देस की ओर मजदूर भागने लगे हैं । महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश व राजस्थान जाने वाली रेलगाडियां जहां भर भर कर जा रही हैं , वहीं वहां से आने वाली रेलगाडियां खाली आ रही हैं । कोई प्रलोभन काम नहीं आ रहा । मजदूर हैं कि डरे सहमे हुए हैं और कह रहे हैं कि पिछली बार तो पैदल चल पाये थे लेकिन अब हिम्मत नहीं हो रही। इसलिए पहले ही निकल रहे हैं जबकि अरविंद केजरीवाल दुहाई दे रहे हैं कि बस , एक सप्ताह तक इंतज़ार करो , हालात ठीक हो जायेंगे । पर विश्वास नहीं कर रहा कोई ।
अस्पतालों में ऑक्सीजन सिलेंडरों , आईसीयू के बैड और अन्य सुविधाओं की कभी का रोना है । कहा जा रहा है कि हमने कभी अस्पताल , स्कूल बनवाने की सोची ही कब ? हम तो मंदिर मस्जिद और बड़ी बड़ी मूर्तियों के लिए लड़ते रहे। अब भुगतो । यदि मंदिर, मस्जिद की बजाय अस्पताल और स्कूल बनाये होता तो पछताया न पड़ता । यह सोशल मीडिया पर चल रहा है । एक साल से कोरोना चेतावनी दे रहा था , तब भी क्या तैयारी की ? कोई नहीं । तैयारी पांच विधानसभा में चुनाव जीतने की चलती रही । तैयारी सरकारें गिराने की होती रही । बाकी ऊपर वाला जाने । स्कूल बंद हैं । संचालक खोलने की मांग कर रहे हैं और चोरी चुपके स्कूल खोल भी रहे हैं और सरकार व प्रशासन जाने मार रहा है । काम बढ़ा दिया प्रशासन का । अब संचालकों के अपने परिवार हैं और इन पर निर्भर रोज़गार हैं । पिछले एक साल से बहुत से लोग रोज़गार खो चुके । क्या करें ? पर स्कूल खोलने की इजाजत कैसे मिले ? हम अपने तक ही सीमित न रहें। पूरे समाज की सोचें ।
किसान आंदोलन फिर बार्डर पर लौट रहा है । कोर्ट कह रहा है की किसी के लिए बाधा न बनो । बाकी आंदोलन का हक है। सरकार यहां भी आंखें मूंदे हुए है । काश , समय रहते चेत जाये । नहीं तो ,,,,
अब पछताये होत क्या
जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत ,,,
आईपीएल चल रहा है
और चौकों छक्कों की बरसात हो रही है ,,,पर दिल बेचैन है कोरोना के मारे,,,