आज़ादी का दीवाना चंद्रशेखर आज़ाद
27 फरवरी को उनकी शहादत पर विशेष
-नेहा सहगल/लुधियाना
चंद्रशेखर आज़ाद, एक ऐसा नाम है जो भारत के हर घर में आज़ादी के लिए हुए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों में से एक है। आज 27 फरवरी को उनकी शहादत के 90 साल हो चुके है लेकिन ये नाम कभी भी हमारे ज़हन से नहीं उतर सकता। असल में उन्होंने अपने नाम के साथ 'आज़ाद' इसलिए लगाया था ताकि वो भारत को अपने संघर्ष से आज़ाद कराने में अपना सब कुर्बान कर दे। बिना कुछ नाम जैसे चंद्रशेखर आज़ाद ,भगत सिंह ,राजगुरु ,सुखदेव के भारत की आज़ादी की कल्पना तक करना मुमकिन नहीं है।
जब 1919 में अमृतसर के जलियावाले बाग़ में हमला हुआ था तब चंद्रशेखर आज़ाद अपनी पढ़ाई कर रहे थे, इस हमले के कारण उनमे आंदोलन करने और सड़को पर उतरने की लहर बढ़ी। उन्हें बचपन से ही देश की भक्ति में बहुत रूचि थी। गांधी जी के द्वारा चलाये गए असहयोग आंदोलन में जुड़ने पर आज़ाद गिरफ्तार भी हुए जिस के कारण उन्हें 15 कोड़ो की सज़ा मिली जो की असहनीय थी। आज़ाद 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकियन असोसिएशन ' का हिस्सा बने। 1925 में आज़ाद ने कुछ क्रांतिकारियों के साथ मिल कर काकोरी काण्ड किया। जिसमे वो कभी पकड़े न गए। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि न तो अंग्रेज़ उन्हें कभी पकड़ पाएंगे और न उन्हें कभी फांसी की सज़ा होगी।
लाला लाजपत की मौत का बदला लेने के लिए चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और गुरुदेव ने जे पी सांडर्स को मौत के घाट उतारा। 27 फरवरी,1931 को सांडर्स के अंगरक्षकों ने चंद्रशेखर आज़ाद को मारने के लिए गोली चलाई जो उनकी जांघ पर लगी इसके बाद ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आज़ाद ने खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली। उनकी शहादत पर इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में उनकी क्रान्ति का आवाहन हुआ।
''कभी खा कर तो कभी चला कर गोली ,
देश को आज़ाद कराने में आँखे सबकी खोली ,
आज़ादी के बाद मनाएंगे दिवाली ,दशहरा ,होली,
आज भी 'आज़ाद ' को याद करके आँखे ये रो ली।। ''
उनकी याद में कुछ फिल्मे जैसे' 'रंग दे बसंती' ,'शहीदे आज़म ' बनाई गई है ताकि देश की नई पीढ़ी के अंदर ऐसे क्रांतिकारियों के द्वारा किये गए त्याग का असर हो। उनके नाम पर देश में काफी स्कूल, कॉलेज,सड़के और संस्थाए है। हमें ऐसे वीर जवानो पर गर्व होता है जिनके लिए देश की आज़ादी उनकी जान से भी ज़्यादा प्यारी है।