मृत्युभोज और बाज़ारवाद
-कमलेश भारतीय
यह एक चौंकाने वाला शोध सामने आया है कि मृत्यु के डर से अंतिम संस्कारों में तामझाम बढ़ रहा है और इस पर बाज़ारवाद का असर साफ साफ देखने को मिल रहा है। यह शोध अमेरिका में सन् 2022 के अंतिम संस्कारों के आधार पर किया गया, जिसमें यह बात सामने आई कि अंतिम संस्कारों के कारोबार में कुल 1.50 लाख करोड़ रुपये खर्च किये गये। जीना तो जीना, मरना भी महंगा होता जा रहा है, यह बात स्पष्ट होती है इस शोध से। अंतिम संस्कारों में लोग ज्यादा खर्च क्यों कर रहे हैं? शोध के अनुसार मृत्यु के भय से ऐसे तामझाम पर पैसा खर्च किया जा रहा है। इस तरह शोध में यह सामने आया है कि मृत्यु के भय और अंतिम संस्कारों के बीच गहरा संबंध है।
वैसे दुनिया के सात आश्चर्यों में पिरामिड भी एक आश्चर्य के रूप में शामिल हैं तो देखा जाये तो ताजमहल भी तो शाहजहां ने अपनी मुम्ताज के लिए एक शाही कब्र ही तो बनवायी थी, इन दोनों आश्चर्यों का सीधा संबंध मृत्यु से ही तो है। पिरामिड में तो साज श्रृंगार तक के सामान भी मिले हैं और ताजमहल मृत्यु से जुड़कर भी प्रेम का अमर प्रतीक बन गया।
यह बात भारतीय संस्कृति में है कि जन्म, विवाह और मृत्यु पर सबसे ज्यादा खर्च होता है । जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कार और संस्कारों के पालन पर खर्च ही खर्च। अभी एक अमीर परिवार के बेटे की शादी पर पांच हज़ार करोड़ रुपये खर्च होने का आंकड़ा सामने आ रहा है। इतनी लम्बी शादी शायद ही इससे पहले हुई हो। क्या फिल्म, क्या धर्म और क्या राजनीति सभी के मुख्य प्रतिनिधि आशीर्वाद के लिए जुटे। फिल्मी लोगों के ठुमके भी देखने को मिले तो वैदिक मंत्रोच्चार भी गूंजे ! खर्च की तो चिंता ही किसे थी।
राजनेताओं में मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी की असामयिक मृत्यु बहुचर्चित रही और उनका अंतिम संस्कार दूरदर्शन पर लगातार दिखाया गया, जिससे कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में चार सौ पार हो गयी, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा भी रहा लेकिन पूरा नहीं रहा। यह संभवत: सबसे महंगी मृत्यु रही होगी।
जैसे अंबानी के बेटे की शादी का खर्च सहना किसी के बस की बात नहीं, वैसे ही इंदिरा गांधी जैसी श्रद्धांजलि भी सबके बस की बात नहीं। हमारा स्वतंत्रता पूर्व का साहित्य भी मृत्यु के साथ जुड़े संस्कारों और परंपराओं से भरा पड़ा है। मुंशी प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' होरी की मृत्यु के बाद की गोदान की परंपरा से जुड़ा है और धनिया कुछ पैसे पंडित जी को देकर पछाड़ खाकर गिरने से पहले कहती है कि यही इनका गोदान है। अंतिम संस्कार के लिए गरीब कैसे पैसा जुटाते हैं और फिर शराब पी जाते हैं, यह भी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' सामने लाती है। मन्नू भंडारी का 'महाभोज' उपन्यास भी कहीं न कही इससे जुड़ा है। अब अंतिम संस्कारों पर किये जाने खर्च को पंचायतें कम करने में लगी हैं। फिर भी मृत्यु का बाज़ारवाद से संबंध तो है ही और बना रहेगा। शायर कहता है:
रुकता नहीं है खर्च तो मरने के बाद भी
गज भर कफ़न नसीब नहीं बिन पैसे के यहाॅं!!
-पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।