लोकतंत्र और लट्ठतंत्र के बीच फंसा विकास....?
-कमलेश भारतीय
यह हमारा पावन लोकतंत्र है । इसे स्वतंत्रता के बाद से धीरे धीरे लट्ठतंत्र में राजनेताओं ने बदल डाला है । पहले तो लट्ठ वालों को साथ रखते थे रौब जमाने के लिए । अपना प्रभाव जमाने के लिए । फिर इन लट्ठमारों को राजनीति का ऐसा चस्का लगा कि वे खुद चुनाव लड़ने के लिए लालायित होने लगे । अब हर चुनाव में मीडिया यह बताता है कि किस पार्टी की ओर से कितने बाहुबली चुनाव में टिकट लेकर उतर रहे हैं । वैसे तो राजनीति की हालत यह है कि फिल्मी स्टारों को भी राजनीति में टिकट दिए जाते हैं जबकि वे जीत के बाद कभी अपने चुनाव क्षेत्र में भूले भटके ही जाते हैं ।
कल कानपुर के निकट जो हुआ वह लोकतंत्र और लट्ठतंत्र के बीच की रेखा को पार कर गया । विकास दुबे को गिरफ्तार करने गये पुलिस दल पर गोलियां बरसाई गयीं जिसके चलते आठ पुलिस कर्मी वहीं ढेर हो गये जबकि सात गंभीर रूप से घायल हो गये । जिसे गिरफ्तार करने गये थे उसे समय पर पुलिस की किसी काली भेड़ ने सूचना दे दी और वह पहले से तैयार हो गया । विकास के संबंध समाजवादी पार्टी और भाजपा के साथ बताये जा रहे हैं । सीधी सीधी बात कि जो भी दल सत्ता में होता था विकास उसी के करीब होने की कोशिश करता । यहां तक कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कानून मंत्री के साथ भी विकास का फोटो वायरल हो रहा है । ऐसे कितने ही नेताओं के साथ फोटो हो सकते हैं क्योंकि अधिकारियों पर रौब जमाने के ये फोटो बहुत काम आते हैं ।
खैर , विकास सिर्फ यूपी में ही नहीं है । ऐसे विकास दुबे हर राज्य में मिल जायेंगे । कोई छोटा तो कोई बड़ा विकास । हरियाणा में लोकसभा चुनाव के दौरान रोहतक के विधायक के साथ भी किसी बाहुबली का फोटो वायरल हुआ था । वह भी किसी मतदान केंद्र में । उसका क्या हुआ ? कोई बता सकता है ? विकास हर राज्य के राजनेताओं की कमज़ोरी और ताकत दोनों हैं । इनके बिना कैसी राजनीति ? राजनीति के अंगने में बाहुबलियो का काम और दखल बढ़ता जा रहा है । पप्पू यादव बिहार का बाहुबली है । ऐसा बाहुबली कि जेल में बंद रह कर भी पत्रकार की हत्या को अंजाम दे सकता है । जेल में महफिलें जमा सकता है । पप्पू यादव को किसने संरक्षण दिया ? बिहार की राजनीति पर प्रकाश झा ने अपहरण फिल्म बनाई और सच्चाई दिखाने की कोशिश की । अपहरण हो या गंगाजल सभी फिल्मों में बिहार के बहाने राजनीति का काला सच सामने रखते हैं प्रकाश झा । किस्सा कुर्सी का को तो रिलीज होने का मौका ही नहीं मिला । बताइए , लोकतंत्र है या लट्ठतंत्र? हम किस ओर बढ़ रहे हैं ? लोकतंत्र या लट्ठतंत्र की ओर ? पूछिए और टटोलिए अपने अपने दिल को ....