चंडीगढ़ के दिनों में/तलाश
उस नये शहर में एक अनजान रेस्तरां में पहला कदम रखते ही आवाज़ आई -आइए साहब , तारीफ लाइए ।
मैं चौंका, फिर सोचा यह व्यवहार कुशलता का परिचय देते हुआ कोई बैरा होगा ।
था तो बैरा ही पर आंखों में सपने संजोये एक नवयुवक मुस्कुरा रहा था मेरे सामने । कंधे पर तौलिया रखे , हाथ जोड़े वह एक कुर्सी की ओर इशारा कर कह रहा था -आइए न साहब । इधर बैठिए । इधर आइए । ठहरिये । मैं जरा पोंछ दूं और वह बड़े प्यार से कुर्सी मेज़ को तौलिये से पोंछे लगा । कुछ इस तरह जैसे घर आए किसी मेहमान की खातिरदारी करने जा रहा हो । फिर उसने जिस फुर्ती से पानी का गिलास , चाय की प्याली और समोसों की प्लेट लाकर रखी , मैं देखता ही रह गया ।
यों बीच में किसी ग्राहक ने पानी मांगा तो उसे पूरी तरह नजरअंदाज करते कह दिया-देखते नहीं ? बड़े साहब आए हैं । हमारे अफसर आए हैं ।
उसके साहब संबोधन से मुझे नशा सा जाने लगा ।
जब मैं उठ कर चलने लगा तब उसने बड़े धीमे सुर में पूछा-साहब । अपने दफ्तर में नौकरी दिला दोगे ?
-कितना पढ़े हो ?
-बी ए हूं साहब । आप देख रहे हैं कि रेस्तरां में कप प्लैट्स धो रहा हूं ।
-कोशिश करूंगा । अभी जगह नहीं है ।
मैं अभी पैसे चुका ही रहा था कि रेस्तरां मे प्रवेश कर रहे किसी दूसरे बाबू की ओर साहब , साहब ,आइए साहब कहते लपकने दौड़ा ।
-कमलेश भारतीय