संपादक का वेतन: दो सूखी रोटी?

संपादक का वेतन: दो सूखी रोटी?

-*कमलेश भारतीय
क्या आज यह मुमकिन हैं कि संपादक का वेतन दो‌ सूखी रोटी, एक गिलास ठंडा पानी और दस साल काले पानी की सज़ा। फिर भी इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू दैनिक 'स्वराज' के लिए संपादकों की लाइन लग जाती थी। सिर्फ 1907 से1910 तक चले इस उर्दू अखबार के इतने कम समय में सात संपादक हुए और उन्हें कुल मिलाकर 125 साल की सज़ा मिली। 
स्वतंत्रता से पूर्व यह था हमारे मीडिया का सच और मीडिया का चेहरा। क्रांतिकारी भगत सिंह ने भी बलवंत के नाम से कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पास पत्रकारिता की, जब वे शादी का दबाब बनाये जाने पर भाग  खड़े हुए थे और कुछ समय पत्रकारिता कर क्रांतिकारी गतिविधियों को भी चलाते रहे। न जाने कितने संपादकों ने  स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान देते कितने अत्याचार सहे होंगे और समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए क्या कुछ सहा होगा। यह हमारा स्वतंत्रता पूर्व का मीडिया था, जो पहले उर्दू व बाद में हिंदी में सामने आया। मीडिया में जनमत बनाने की ताकत थी और इसी ताकत को कुचलने को अंग्रेज़ अधिकारी तैयार रहते थे। कालेपानी जैसी सज़ायें आम थीं। न जाने कितने अखबार बंद हुए और कितने संपादक जुल्म के शिकार हुए। स्वतंत्रता पूर्व देश के दो बड़े नेताओं ने भी अखबार निकाले -महात्मा गांधी व लाला लाजपतराय। शब्द की ताकत को ये नेता पहचान गये थे। 
स्वतंत्रता के बाद का दृश्य एकदम बदल गया है। कोई तुलना नहीं हो सकती इन दोनों में। कहां तो सूखी रोटी और ठंडा पानी और कहां लाखों के पैकेज। है कोई समानता ? बिल्कुल नहीं। एक दूसरे के एकदम विपरीत चेहरा है स्वतंत्रता पूर्व व स्वतंत्रता के बाद के मीडिया का। स्वतंत्रता के बाद के मीडिया पर जनता का ही भरोसा नहीं रहा। यह इवेंट मैनेजमेंट का मीडिया है, सत्ता पक्ष का मीडिया है और सत्ता जो कहती है, वही लिखा और दिखाया जा रहा है। मीडिया का स्वरूप एकदम बदल गया है। अब मीडिया से ज्यादा सोशल मीडिया पर आमजन को भरोसा है। टीवी एंकर्स ऊपर के निर्दशों के अनुसार ही बहस के विषय रखते हैं और विपक्षी नेताओं पर चिल्लाते रहते हैं। 
यह हमारा पतन है। आमजन को यह विश्वास होता जा रहा है कि मीडिया बिकाऊ है और जो पत्रकार बिकाऊ नहीं, उसके चैनल को ही खरीद लो, खरीद लिया और सभी प्रमुख पत्रकार बेरोजगार कर दिये, वे अब अपने अपने यूट्यूब चैनल चला रहे हैं ।अब आगे क्या, कोई नहीं जानता। कहा जाता था:
खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो! 
अब तो यह हो गया: 
जब खजाना दिख रहा हो 
तब सब भूल जाओ 
और खूब कमाओ!! 
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।