कमलेश भारतीय की पांच लघुकथाएं
(1)
यह कैसा स्वागत्?
अस्पताल में एक उच्च पद पर कार्यरत महिला ने बच्ची को जन्म दिया । अस्पताल की सबसे सीनियर महिला डाॅक्टर आई और उस महिला अधिकारी को बुरा सा मुंह बना कर कहने लगी-हमने सोचा था कि आप पढ़ी लिखीं हैं और आपने अल्ट्रासाउंड करवा रखा होगा । पर हमें क्या मालूम था कि आपने भगवान् भरोसे सब कुछ छोड़ रखा है ।
महिला अधिकारी चौंकी । फिर पूछा -यदि मैंने पहले से सब कुछ करवा रखा होता तो फिर क्या फर्क पड़ता?
-कम से कम हमारे स्टाफ को तो इनाम मिल जाता । महिला डाॅक्टर ने बड़ी बेशर्मी से कहा ।
-बस । इसी कारण आपने मेरी नवजात बच्ची का स्वागत् नहीं किया ?
-हां । हमारे स्टाफ को कुछ ऐसी ही उम्मीद थी आपसे ।
-कोई बात नहीं । आप स्टाफ को बुलाइए ।
सारा स्टाफ आ गया और महिला अधिकारी ने सबको इनाम दिया लेकिन उसके बाद अपने पति को बुलाकर अपना सारा सामान समेट लिया । पति ने पूछा -ऐसा क्यों कर रही हो ?
महिला अधिकारी ने पति के गले लगकर रोते कहा -इस अस्पताल में मैं एक पल और नहीं रहूंगी क्योंकि इन लोगों ने मेरी बच्ची का स्वागत् नहीं किया ।
(2)
बचपन
मेरे छोटे भाई के बेटे का जन्मदिन था । इसलिए ऑफिस से जल्दी छुट्टी लेकर आया । घर के अंदर खूब रौनक और,खुशी के माहौल । बाहर क्या देखता हूं हमारी कामवाली का छोटा सा बेटा बर्तन मांज रहा है और रोते रोते मां से कह रहा है -मुझे भी केक दिलवाओ । मुझे भी जन्मदिन मनाने है । मां बेबस । झांक रही अपने अंदर । मैं सोच रहा हूं कि जन्मदिन किसका मनाऊं?
(3)
संस्कृति
-बेटा , आजकल तेरे लिए बहुत फोन आते हैं ।
- येस मम्मा ।
-सबके सब छोरियों के होते हैं । कोई संकोच भी नहीं करतीं । साफ कहती हैं कि हम उसकी फ्रेंड्स बोल रही हैं ।- -येस मम्मा । यही तो कमाल है तेरे बेटे का ।
-क्या कमाल ? कैसा कमाल ?
-छोरियां फोन करती हैं । काॅलेज में धूम हैं धूम तेरे बेटे की ।
-किस बात की ?
-इसी बात की । तुम्हें अपने बेटे पर गर्व नहीं होता।
-बेटे । मैं तो यह सोचकर परेशान हूं कि कल कहीं तेरी बहन के नाम भी उसके फ्रेंड्स के फोन आने लगे गये तो ,,,?
-हमारी बहन ऐसी वैसी नहीं हैं । उसे कोई फोन करके तो देखे ?
-तो फिर तुम किस तरह कानों पर फोन लगाए देर तक बातें करते रहते हो छोरियों से ?
-ओ मम्मा । अब बस भी करो ,,,,
.
(4)
और मैं नाम लिख देता हूं
दीवाली से एक सप्ताह पहले अहोई माता का त्योहार आता है ।
तब तब मुझे दादी मां जरूर याद आती हैं । परिवार में मेरी लिखावट दूसरे भाई बहनों से कुछ ठीक मानी जाती थी । इसलिए अहोई माता के चित्र बनाने व इसके साथ परिवारजनों के नाम लिखने का जिम्मा मेरा लगाया जाता ।
दादी मां एक निर्देशिका की तरह मेरे पास बैठ जातीं । और मैं अलग अलग रंगों में अहोई माता का चित्र रंग डालता । फिर दादी मां एक कलम लेकर मेरे पास आतीं और नाम लिखवाने लगतीं । वे बुआ का नाम लिखने को कहतीं ।
मैं सवाल करता - दादी , बुआ तो जालंधर रहती है ।
- तो क्या हुआ ? है तो इसी घर की बेटी ।
फिर वे चाचा का नाम बोलतीं । मैं फिर बाल सुलभ स्वभाव से कह देता - दादी ,,,चाचा तो ,,,
- हां , हां । चाचा तेरे मद्रास में हैं ।
- अरे बुद्धू । वे इसी घर में तो लौटेंगे । छुट्टियों में जब आएंगे तब अहोई माता के पास अपना नाम नहीं देखेंगे ? अहोई माता बनाते ही इसलिए हैं कि सबका मंगल , सबका भला मांगते हैं । इसी बहाने दूर दराज बैठे बच्चों को माएं याद कर लेती हैं ।
बरसों बीत गए । इस बात को । अब दादी मां रही नहीं ।
जब अहोई बनाता हूं तब सिर्फ अपने ही नहीं सब भाइयों के नाम लिखता हूं । हालांकि वे अलग अलग होकर दूर दराज शहरों में बसे हुए हैं । कभी आते जाते भी नहीं । फिर भी दीवाली पर एक उम्मीद बनी रहती है कि वे आएंगे ।
,,,,और मैं नाम लिख देता हूं ।
(5)
परंपरा
-मां , इस लोहे की पेटी को रोज रोज क्यों खोलती हो ?
- तेरी खातिर । मेरी प्यारी बच्ची ।
- मेरी खातिर ?
- तू नहीं समझेगी ।
-बता न मां ।
- जब मैं छोटी थी मेरी मां भी पेटी खोलती और बंद करती रहती थी । तब मैं भी नहीं जानती थी । क्यों ?
-मैं देखती रहती हूं कि जैसा दहेज मेरी मां ने मुझे दिया था , वैसा ही मैं तेरे लिए जुटा भी पाऊंगी ।
- छोड़ो न मां । मैं ब्याह ही नहीं करवाऊंगी ।
- मैं भी यही कहती थी पर शादी और दहेज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग करना मुश्किल है । मैं क्या करूं ?
-कमलेश भारतीय
(पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी)