मित्रो , एक इंटरव्यू मेरा भी.../कमलेश भारतीय
कमलेश भारतीय द्वारा अशोक गर्ग को उनके प्रश्नों के उत्तर
प्रश्र 1 : मेरा जन्म ननिहाल होशियारपुर (पंजाब) में 17 जनवरी, 1952 में हुआ। बचपन नवां शहर दौआबा में बीता, जिसे आजकल शहीद भगत सिंह नगर कहा जाता है। पिता और दादा जमींदार थे और नंबरदार भी। परिवार खेती बाड़ी से जुड़ा था। बेशक हम गांव की बजाय निकट ही शहर में रहते थे। पांचवीं तक स्कूल जंप करने वाला बच्चा था, यानी भगौड़ा। स्कूल से भागकर दलित बस्ती में अपने नौकर भगतराम के घर छिप जाता था। ठिकाना पकड़े जाने पर पिता के तड़ातड़ तमाचे भी सहता । फिर जगह बदलता और फिर पकड़ा जाता।
प्रश्र 2: मेरी बी.ए., बी.एड तक की शिक्षा नवां शहर में ही हुई, आर्य समाज द्वारा संचालित संस्थाओं में। मेरे ननिहाल भी आर्य समाजी थे और जब कभी ननिहाल छुटियां बिताने जाते तो सुबह बिना हवन किए नाश्ता नहीं मिलता था। एम.ए. हिंदी हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से दूरवर्ती पाठयक्रम द्वारा की। इसीलिए हिमाचल और शिमला से मेरा आज तक विशेष लगाव है। कोई भी शिमला के आयोजन के लिए आमंत्रित करता है तो मैं बिना सोचे-विचारे बोरिया बिस्तर बांधकर चला जाता हूं।
प्रश्र 3: मेरी पहली रचना जालंधर से प्रकाशित समाचार पत्र जन प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। नई कमीज़ कहानी के रूप में जो मैने अपनी हवेली के नौकर के बेटे पर लिखी । मेरे पिता ने मेरी पुरानी कमीज़ नौकर भगतराम के बेटे को दी थी, और वह नई कमीज़ मानकर बहुत खुश होकर हवेली के बाहर खेल रहे बच्चों को दिखाने गया था। यह एक गरीब की बेबसी थी। हमारी पुरानी कमीज़ भी उसे नई कमीज़ के रूप में स्वीकार करनी पड़ती है। परिवार में ऐसा कोई नहीं था, जो मेरी लेखन कला के बारे में जानता था और आमतौर पर नया-नया लेखक परिवार से अपना लेखन छिपाता भी है। पर वह छिपा नहीं रहा। क्योंकि हमारी बिरादरी के मोहल्ले में कई लोगों ने वह रचना पढ़ ली थी और परिवार वालों को बता दिया था। इस तरह खुशी की बजाय थोड़ी डांट मिली थी कि घर की बातें कहानी में लिखने लग गए हो।
प्रश्र 4: बी.ए. तक वह छात्र जो स्कूल जंप कर भाग जाता था, वह तीनों वर्ष कॉलेज में प्रथम रहा। यही नहीं कॉलेज की पत्रिका का तीनों वर्ष हिंदी विभाग का छात्र सम्पादक भी रहा। यहीं से संपादन में रूचि भी पैदा हुई। तीन वर्ष का एक साथ दीक्षांत समारोह हुआ, तब मुझे ढेरों पुस्तकें एक ही मुश्त पुरस्कार में दी गई, जो मेरे सहपाठी छीन-छीन कर ले गए। मेरे पास सिर्फ एक ही किताब बची कुटेशन्ज की। जो मेरे बड़े काम आई।
प्रश्र 5: मेरे अंग्रेजी के प्राध्यापक एच.एल. जोशी मेरे प्रिय अध्यापक रहे हैं। उन्होंने मुझे मंच पर बोलना सिखाया और मैं पंजाब भर के कॉलेजों में युवा उत्सवों में काव्य पाठ करने के लिए गए। लघु कथा की तरह संक्षेप में अपनी बात कहने का हुनर भी सिखाया। कोई ऐसा अध्यापक है, जो बिना टैस्ट बुक के उपन्यास दी ओल्ड मैन एंड दी सी को पढ़ा दे? एच.एल. जोशी ने यह कमाल कर दिखाया था। मैने बी.ए. अंतिम वर्ष में यह उपन्यास खरीदा भी नहीं और पढ़ा भी नहीं लेकिन फिर भी अंग्रेजी में भी मेरे नंबर सबसे ज्यादा रहे। हालांकि बाद में मैंने इस उपन्यास को खरीदकर तीन बार तो मित्रों को भेंट किया और खुद भी पढ़ा। इसकी एक पंक्ति मेरी प्रेरणा भी है : ए मैन इज नॉट मेड फार डिफीट। ही में बी डैस्टायर्ड, बट कैन नॉट भी डिफीटिड। इसी तरह बचपन में मास्टर प्रीतम सिंह मेरे आदर्श थे। जिन्होंने भागते हुए बच्चे को भी सुंदर हिंदी लेखन सिखाया।
प्रश्र 6: जब लेखन शुरू किया था, तब जालंधर के समाचार पत्रों का पंजाब, हिमाचल और हरियाणा में बोलबाला था। इसी दौरान पंजाब केसरी अखबार भी शुरू हुआ था। हर सप्ताह पंजाब केसरी, वीर प्रताप या हिंदी मिलाप किसी ना किसी समाचार पत्र में मेरी कहानियां प्रकाशित होती थी और मज़ेदार बात यह है कि मेरे नाम के कारण पाठक मुझे लड़की समझ कर पत्र लिखते थे। और कोई-कोई तो मिलने भी आ जाते थे और बाद में शर्मिंदा होकर चले जाते थे। आज पत्र पत्रिकाओं के साथ-साथ सोशल मीडिया का जमाना है। फेसबुक के साथ-साथ अनेक वट्सप ग्रुप आपकी रचनाओं को तुरंत ही पाठकों तक पहुंचा देते हैं। और तुरंत प्रतिक्रिया भी मिलती है। यह बदलाव बहुत बढ़िया तो है लेकिन इसका कोई रिकार्ड नहीं रह पाएगा।
प्रश्र 7: मैंने अपने छोटे से कस्बे की दो दुकानों में किराए पर मिलने वाली सभी किताबें पढ़ डाली थीं । जिनमें गुलशन नंदा के उपन्यास और वेद प्रकाश कम्बोज के जासूसी उपन्यास थे । फिर दोनों दुकानदारों ने हाथ खड़े कर दिए कि आपको कोई किताब नहीं मिलेगी। अचानक मेरे मन में विचार आया कि मैं ही लिखकर क्यों न देखूं, बस इस तरह मेरा लेखन में प्रवेश हुआ।
प्रश्र 8: मैंने अपने चौथे लघु कथा संग्रह इतनी सी बात की भूमिका में एक प्रकार से अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में संक्षिप्त सी जानकारी दी है। वह यह है की कोई बात आपके दिल को चुभ जाए या किसी का कहा हुआ वर्षों तक दिल में टीस देता रहे तो कभी न कभी उस पर कोई न कोई रचना लिखी ही जाती है। हम प्रतिदिन कितने लोगों से मिलते हैं और कितनी तरह की बातें सुनते हैं। कई बार तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों से ही समाज की छवि मिल जाती है। और हम लेखक उसको अपने मन की वर्कशाॅप में डालकर एक नई रचना का निर्माण कर देते हैं।
प्रश्र 9: मेरी साहित्य की यात्रा विभिन्न पड़ावों से गुजरी। और मैं समझता हूं कि हर लेखक इसी तरह पड़ाव दर पड़ाव यात्रा तय करता है। सबसे पहले मैं एक अच्छा पाठक बनने की कोशिश करता रहा। इसी कोशिश में कितने ही पुस्तकालयों में भटका और श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ा। आज भी जहां कहीं अच्छी पुस्तक मिलती है, मैं उसे खरीदकर पढ़ने की और सीखने की कोशिश करता हूं। अच्छा साहित्य पढ़ने के बाद भी मन में कुछ लिखने की उमंग जागती है। इसके बाद मैं एक संपादक भी बना। दैनिक ट्रिब्यून के कथा कहानी साप्ताहिक पृष्ठ को सात वर्षों तक संपादित किया। इसी प्रकार हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष रहते हुए लगभग 3 साल से भी ऊपर कथा समय जैसी कथा पत्रिका का संपादन किया। हर लेखक पहले पाठक होता है, फिर लेखक और फिर उसे अवसर मिले तो संपादक होता है।
प्रश्र 10: इस तिलस्मी यात्रा के दौरान मुझे सन 1982 में धर्मयुग और सारिका में जुलाई माह में एक साथ कहानियां छपने का दुर्लभ अवसर मिला। तभी मुझे लेखक की फैनमेल का भी आनंद मिला। दोनों कहानियां पाठकों ने बहुत पसंद कीं और इनके पंजाबी अनुवाद भी प्रकाशित हुए । एक संवाददाता की डायरी कहानी को डा. महीप सिंह ने वर्ष की श्रेष्ठ कहानियों के संकलन में भी शामिल किया। इसी प्रकार इन कहानियों को पढकर राजपुरा से एक लेखिका संतोष विशेष रूप से मुझे मिलने आई। इसी प्रकार ऋषिकेश के महेश योगी आश्रम के बाहर बैठे युवा नेपाली साधु ने मेरे चेहरे को देखकर पूछा कि क्या आपका नाम कमलेश भारतीय है। मैं हैरान हो गया । तब उसने कहा कि आप मेेरे साथ मेरे कमरे में चलिए। कमरे में जाकर देखा कि उसकी मेज़ पर सारिका का वही अंक पड़ा था और मेरी फोटो और परिचय वाला पन्ना खुला हुआ था । तब उस युवा स्वामी ने बताया कि जैसे मैंने आपको देखा तो सारिका का यह पन्ना मेरे सामने आ गया और मुझे लगा कि ये तो वही आदमी है, जिसकी कहानी पढ़कर आ रहा हूं। तो ये बड़े रोचक और अविस्मर्णीय प्रसंग हैं, इसी प्रकार मेरी कहानी दोस्त केहर शरीफ ने पंजाबी में अनुवाद की और वह इंग्लैंड के एक पंजाबी समाचार पत्र में प्रकाशित हुई । वहां मेरी पत्नी की बड़ी बहन कांता ने किसी दुकान पर अचानक पढ़ी और मुझे पोस्ट कर दी। इस तरह मुझे लगा कि दुनिया कितनी छोटी है। ऐसे ही मेरी खटकड कलां की छात्रा रही तरसेम कौर ने दुकान पर रद्दी पेपर में मेरी कहानी इंग्लैंड बैठे पढ़ी और सी नम्बर देखा तो फोन कर दिया । वाह । रोचक ।
प्रश्र 11: समकालीन लेखकों में मेरे अनेक मित्र हैं। किसी एक का नाम लेना उचित नहीं होगा। यह कह सकता हूं कि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली में मेरे मित्रों की संख्या बहुत है। इन्हीं क्षेत्रों में मैं अक्सर घूमने निकलता हूं और मित्रों से मिलता हूं। हां, मित्र रमेश बतरा के असमय चले जाने का मुझे बहुत ही दुख है। क्योंकि वह मेरी कहानियों का न केवल प्रशंसक था बल्कि सबसे बड़ा आलोचक भी था। उसने मुझे कह रखा था यदि एक माह में नई कहानी नहीं लिखी तो मुझे मिलने चंडीगढ़ मत आना। इसी कारण रमेश बतरा के चंडीगढ़ रहते हुए मेरी कहानियां सारिका, कहानी, न्या प्रतीक जैसी उच्च कोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं । जिसका संपादक कमलेश्वर, श्रीपतराय और अज्ञेय और धर्जीमवीर भारती करते थे ।
प्रश्र 12: पत्रिकाओं के वजूद के बारे में इस इंटरनैट, फेसबुक और ट्विटर के जमाने में भी कुछ नहीं कर सकते । ये तब तक बचा रहेगा। क्योंकि फेसबुक पर अनेक ग्रुप सक्रिय हैं और इसी प्रकार फेसबुक नई से नई रचनाओं से भरी रहती है।
प्रश्र 13: साहित्य में स्थापित होने का एक ही गुरू मंत्र है, जो संगीत का भी है- निरंतर अभ्यास और श्रेष्ठ साहित्य का पठन-पाठन।
प्रश्र 14: अब तक अनेक सम्मान मिले लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा अपने संग्रह एक संवाददाता की डायरी पर मिला सम्मान सदैव पुलकित करता रहता है और नया लिखने के लिए प्रोत्साहित भी करता है। पंजाब के भाषा विभाग द्वारा मेरे प्रथम संग्रह महक से ऊपर को वर्ष की श्रेष्ठ कृति का पुरस्कार मिला। इसी प्रकार पटना के प्रगतिशील मंच, कहानी लेखन महाविद्यालय द्वारा लघु कथा पर पुरस्कार मिले। मुझे जो मिला, मैं उससे बहुत संतुष्ट हूं। क्योंकि लेखक पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता । वह समाज को बदलने के लिए लिखता है।
प्रश्र 15: नवोदितों के लिए वही गुरु मंत्र है कि श्रेष्ठ साहित्य पढ़ते रहें और स्वयं अपने ही अपने आलोचक बनें। मैं मंच पर हमेशा नए लेखकों के लिए एक शेर कहा करता हूं।
तुम ही तुम हो एक मुसाफिर, यह गुमान मत रखना
अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना ।