हरियाणा की माटी से: कैम्पटी, मंसूरी के निकट
-*कमलेश भारतीय
कल दिन भर देहरादून , मंसूरी और कैम्पटी फाॅल में घूमा परिवार के साथ ! देहरादून में 48 साल बाद प्रिय मित्र व बड़े भाई प्रसिद्ध कथाकार सुभाष पंत के घर छोटी सी मुलाकात और परिवार से परिचय ! फिर चले मंसूरी की ओर । राह में मंसूरी की झील आई तो रुक गये । हम पति-पत्नी तो नीचे न गये, हिम्मत न हुई लेकिन बच्चे गये और वोट तक चला कर आये । सामने सड़क पर गाड़ियों का न टूटने वाला काफिला ! जैसे हर कोई छुट्टियां मनाने मंसूरी भागा चला जा रहा हो । जैसे कोई होड़ में हो कि हम भी मंसूरी जायेंगे ! जहां देखो व्यापार बन गया ! यहां भी पार्किग के पैसे दो ! सड़क पर भी !
अब आगे अनंत कारों का काफिला जो चींटी की चाल की तरह सरक रहा था । दोहिते लक्ष्य को कैम्पटी फाॅल का ऐसा जुनून कि बस कब आ जाये कैम्पटी फाॅल ! जैसे तैसे शाम पांच बजे के बाद पहुंचे । वर्षों पहले जिस कैम्पटी फाॅल को देखा था वह तो पहचान में ही न आ रहा था ! जैसे किसी नये कैम्पटी फाॅल को देख रहा था । पूरा बाजारीकरण हो चुका है । कैम्पटी फाॅल का पानी और झरना तो कम बस दुकानें ही दुकानें दिख रही हैं । न जाने कितने परिवार इससे रोज़ रोटी कमा रहे हैं । नहाने के कपड़े बदलने के लिये सामान , वाटर ट्यूब्स और न जाने कितने मनोरंजन की दुकानें आपका स्वागत् कर रही हैं । बिल्कुल फाॅल पर कपड़े चेंज करने के लिये भी एक सौ रुपये देने होते हैं । वहीं ज्ञान सिंह रावत बता रहे है कि सन् 1995 से इंटर करने के बाद यहीं रोजी रोटी कमा रहा हूं । अंग्रेज कभी ऊबड़ खाबड़ रास्तों से जाते तो यहां चाय के लिये कैम्प करते और बस नाम हो गया-कैम्पटी फाॅल! सन् 1995 में तो यहां शाम को कोई नहीं होता था । बहुत डर लगता था कि कहीं से किसी अंग्रेज की आत्मा ही न आ जाये ! और ज्ञान सिंह हंसने लगा ! हमने खूब डुबकियाँ लगाई फाॅल के पानी में ! सबसे बड़ी बात कि यहां दिल्ली से आया मुस्लिम परिवार और जालंधर से आया सिख परिवार सभी एक ही पानी में मस्त डुबकियाँ लगा रहे थे । किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी । फिर ये दंगे कैसे हो जाते हैं ! सबको यहां लाकर स्नान करवाना चाहिये जिससे मन चंगा चंगा , पवित्र पवित्र हो जाये, निर्मल हो जाये ! यही लगा मुझे !
अब वापसी पर फिर वही लम्बा काफिला कारों का ! वही चींटी की चाल रेंगती कारें ! आम आदमी कहां सपने देखे पहाड़ों की रानी मंसूरी आने के ! पर एक बात देखी कि सचमुच मंसूरी पहाड़ों की रानी है ! हम जैसे बादलों के बीच तैर रहे थे । ऐसा शिमला में बहुत कम होता है । वहां अब सड़कें चौड़ी करने के चक्कर में सारी खूबसूरती गायब होती जा रही है ।
खैर ! रब्ब रब्ब करके रात सवा ग्यारह बजे होटल ललित पैलेस पहुंचे जो नवोदित प्रवाह के संपादक मित्र रजनीश त्रिवेदी के सहयोग के चलते समय पर बुक करवा लिया था । रात ग्यारह बजे खाना बंद लेकिन राह में फोन कर कुक को रोके रखने का आग्रह किया था और इसी के चलते
बच्चों को खाना मिल गया ! इस तरह रात को करीब साढ़े बारह बजे दोहिते लक्ष्य ने ऑनलाइन मिल्क बादाम मंगवाकर पिलाया और हम नींद की आगोश में चले गये । कल फिर सही मित्रो !
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।