ग़ज़ल
अश्विनी जेतली द्वारा अपनी पत्नी प्रिय चंचल की आज दूसरी पुण्य तिथि पर
(प्रिय चंचल जी की आज दूसरी पुण्य तिथि है। 38 वर्षों के साथ में कभी उन्होंने कोई शिकवा शिकायत नहीं की। मेरी कमजोरियों मजबूरियों में सदैव मेरा कदम-ब-कदम साथ दिया। मुझ जैसे गाफिल को दुनियादारी की सीख भी दी। वफ़ादारी, साफ़गोई, विनम्रता मैंने उनके स्वभाव से उधार ली। लेकिन गलत बात पर ज्वाला की तरह दहक भी जातीं। एक परिपूर्ण और सशक्त महिला बेटे की जुदाई के बाद अधीर हो गई थीं और गंभीर बीमारी से जूझने लगीं थीं, लेकिन वास्तविकता से मुंह मोड़ना नहीं सीखा। पुत्रवधू को बेटी मान कर उसे नई ज़िन्दगी पर अग्रसर होने के लिए मनाना और मेरे हाथों कन्यादान करवाने की दृढ़ता दिखाना केवल चंचल जी जैसी देवी-तुल्य औरत के हिस्से में ही आता है। यह दो वर्ष उनकी यादों के साथ कटे हैं। जब कभी निराश होने लगता हूँ तो सामने आ खड़ी होती हैं और डाँट कर कहती हैं 'जेतली साहब (जीवन भर इसी संबोधन से पुकारा था मुझे) कायम होवो, तुसीं तां दलेर बंदे हो, फेर आह की हाल बनाया?' अपनी स्मृतियों संग जीने की हिदायत दे फिर ओझल हो जातीं हैं। जहाँ भी हैं लगता है अब भी मेरा ख्याल रख रही हैं वर्ना तो कब का टूट गया होता! -अश्विनी जेतली)
दिल से टकरा के जो झुकीं थीं, वो निगाहें ढूंढता हूँ
जो तेरे उस घर को हैं जातीं, मैं वो राहें ढूंढता हूँ
हाथ छुडा कर जाना तेरा, बेसहारा कर गया
साथ तेरे में पायीं थीं जो, वो पनाहें ढूंढता हूँ
तन मन को यख़ कर डाला है, ज़ालिम तेरी जुदाई ने
रूह को रौशन कर जाएं जो, वो शुआएं ढूंढता हूँ
तू गया है जब से यारा, दिल पागल ने बहुत पुकारा
असर दिखाएं, मेल कराएं, वो सदाएं ढूंढता हूँ
देख रहा हूँ हर सू अब तो, बेहयायी बेवफ़ाई
जो तेरी ख़सलत में भरीं थीं, वो वफ़ाएं ढूंढता हूँ
रब्ब से मांगूँ हाथ उठा के, मन्नत तेरे मिलन की
कबूल ख़ुदा के घर में हों जो, वो दुआएं ढूंढता हूँ