ग़ज़ल / अश्विनी जेतली
हो गया ना जाने है क्या आज के इन्सान को
हर शख़्स ढूँढे यहाँ खुद अपनी पहचान को
ना ईमान, ना नैतिकता, ना सच्चाई बची यहाँ
ऐ बंदे क्या देकर जाएगा अपनी संतान को
उसने चाहा कि बुझाऊँ, वो ज़िद्दी जलता रहा
शर्मसार कर गया दीये का हौसला तूफ़ान को
सोने की चिड़िया बन गई, अब मिट्टी का मोर
बुरी नज़र किस की लगी मेरे देश महान को
दैर-ओ-हरम में तो ख़ुदा मिल जाएंगे, लेकिन
चलो चलें अब ढूँढने इस शहर में इन्सान को