गुरुवर प्रोफ़ेसर (डॉ.)रामसजन पांडेय का महाप्रयाण:एक विनम्र श्रद्धांजलि
'जो भी परिस्थितियां मिलें
कांटे चुभें, कलियां खिलें
हारे नहीं इंसान
है संदेश जीवन का यही,
सच है महज संघर्ष ही।'
उपर्युक्त पंक्तियां परम श्रद्धेय गुरुवर प्रोफ़ेसर रामसजन पांडेय जी पर सचमुच चरितार्थ होती हैं।कोरोना संक्रमण के चलते 7 मई, 2021 को वे प्रभु-चरणों में विलीन हो गये हैं।संप्रति वे बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय,अस्थल बोहर (रोहतक) के कुलपति पद पर सुशोभित थे। उनका जन्म सन् 1957 ई. में उत्तर प्रदेश के जिला बहराइच के सेमरियावां ग्राम के एक गरीब किसान परिवार में हुआ था।वे 01 सितंबर, 1986 को महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के हिन्दी-विभाग में बतौर प्राध्यापक नियुक्त हुए तथा 27 जुलाई, 2006 को प्रोफ़ेसर के पद पर पदोन्नत हुए।36 सालों के लंबे अकादमिक अनुभव के बीच उन्होंने कुल मिलाकर तकरीबन तीन दर्जन पुस्तकों की रचना की।उन्होंने 58 से अधिक पीएच.डी. और 90 एम.फिल. शोधार्थियों का निर्देशन किया।50 से अधिक दूरदर्शन और 20 से अधिक आकाशवाणी कार्यक्रमों से जुड़ाव रहा।रोहतक विश्वविद्यालय में महर्षि वाल्मीकि पीठ के प्रभारी प्रोफ़ेसर रहे, विशेष सहायक योजना (SAP) के समन्वयक रहे, हिन्दी विभाग में दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के समन्यवक रहे, हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे और भारत सरकार के मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकार समिति के पदेन सदस्य रहे।'मध्यकालीन काव्य- कुंज', 'रीतिकालीन काव्य-कुंज', 'रीतिकालीन काव्य प्रभास',' भक्तिकालीन काव्य-कलाम' हरियाणा के विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में लगी हैं।उनकी 'रीति सौरभ' पुस्तक पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के स्नातक-पाठ्यक्रम में शामिल है।'अभिनव शिखर' और 'आधुनिक काव्य गरिमा' पुस्तकें भी विश्वविद्यालयीय पाठ्य-पुस्तकें हैं।उनकी अन्य पुस्तकों में उत्प्रेक्षा की अवधारणा,विद्यापति का सौंदर्य बोध,विविध साहित्यिक वाद,विद्यापति:व्यक्ति और कवि,निर्गुण काव्य:प्रेरणा और प्रवृत्ति,रूपक अलंकार:विमर्श और विश्लेषण,संतों की सांस्कृतिक संसृति,दादू की भाषा,विद्यापति वैभव,कविता का मन,कविता का परिपाठ,निर्गुण काव्य की सांस्कृतिक भूमिका,कविवर डॉ.हरमहेंद्र सिंह बेदी,संस्कृति और सौंदर्य, हिन्दी कविता:स्वप्न और संघर्ष,रामकाव्य परंपरा और प्रतिवाद पर्व,आधुनिक हिन्दी राष्ट्रीय काव्यधारा,आधुनिक हिन्दी काव्य और डॉ.रामेश्वर लाल खंडेलवाल'तरूण', हिन्दी साहित्य का इतिहास, उदयभानु हंस रचनावली (चार खंड), उदयभानु हंस के प्रतिनिधि गीत,महेंद्र भटनागर की काव्य-यात्रा, साहित्यिक निबंध, उदयभानु हंस की काव्य साधना आदि शामिल हैं।
वे 'साहित्य-अर्पिता' और 'अनन्य' पत्रिका के संपादक भी रहे।वे देश भर के संस्थानों से बतौर बाह्य विषय विशेषज्ञ जुड़े रहे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,संघ लोक सेवा आयोग,उ.प्र.लोक सेवा आयोग,म.प्र.लोक सेवा आयोग, उत्तराखंड लोक सेवा आयोग, बिहार लोक सेवा आयोग, केंद्रीय साहित्य अकादमी, हरियाणा साहित्य अकादमी, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी आदि राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था-संस्थानों से अनेक रूपों में जुड़े रहे।उन्होंने लगभग 150 से अधिक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों, कार्यशालाओं,पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों, ओरियंटेशन कार्यक्रमों में विषय विशेषज्ञ,सत्र अध्यक्ष, विशिष्ट वक्ता के रूप में सहभागिता की।उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुदानित दो बृहत्त शोध-परियोजनाएं 'स्वातंत्र्योत्तर राम और कृष्ण कथात्मक प्रबंध काव्यों के अनुसंधान की समालोचना' और ' बीसवीं शती के पौराणिक आख्यानमूलक काव्य में नारी' संपन्न की हुई हैं।लगभग 400 पीएच.डी.और डी.लिट.के शोध-प्रबंधों का मूल्यांकन भी किया।उन्हें प्रेमचंद लेखक पुरस्कार, सारस्वत शिखर सम्मान, रामायण शिखर सम्मान, राष्ट्रभाषा रत्न, साहित्य महोपाध्याय, उदयभानु हंस वरिष्ठ साहित्यकार सम्मान, विद्या भारती अलंकरण सम्मान, श्रीदादू शिखर सम्मान,स्व.टेकचंद गोरखपुरिया स्मृति सम्मान आदि मान-सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय,शिमला द्वारा 'डॉ.रामसजन पांडेय की साहित्य-यात्रा' विषय पर लघु शोध-प्रबंध और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई द्वारा 'डॉ.रामसजन पांडेय की आलोचना-दृष्टि' विषय पर पीएच.डी शोध-प्रबंध संपन्न हो चुके हैं।
बकौल डॉ.सुनील कुमार ''वे ऐसे गुरु थे जो चाहते थे कि शिष्य उनसे भी आगे निकलें।वे चाहते थे कि युवा भारतीय संस्कृति और जीवन-मूल्यों से जुड़े रहें।उनका स्पष्ट कहना था कि अमीर वही है जिसके पास अधिक मित्र हों।मुझे जीवन पर्यंत अपने को गुरु-मुक्त मानना स्वीकार नहीं,कदापि नहीं।उनसे पृथक कोई सत्ता नहीं।वो मुझमें रचे-बसे हैं।बीते 17 सालों से लगातार मुझे सींचने वाला युगपुरुष का यूं जाना स्तब्ध कर गया।अब फल देने की बारी आई तो वो खुद निष्काम कर्मयोग का पाठ पढ़ाकर चले गए।शिष्यों पर आने वाली आपदा को सदैव हरने वाला स्वयं 'आपदा' से हार गया।वे सिर्फ मेरे गुरु ही नहीं,अभिभावक भी थे।उन्होंने एक कुम्हार की तरह मुझे गढ़ा।उनके लिए इतना ही कहूंगा कि:
'मैं था गीली मृत्तिका,तुम थे कुशल कुम्हार।
तुम केवल गुरु ही नहीं, मेरे रचनाकार।।'
उनके जाने से हम शिष्यों पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है।उनके बिना दिमाग सन्न और जीवन सूना हो गया है।वे हमारी हर कामना पूरी करते रहे और उनकी छोटी-छोटी इच्छाएं भी अधूरी रह गयी।उनका जाना मेरे लिए,मेरे परिवार के लिए निजी क्षति है और इसकी भरपाई कभी संभव नहीं हो सकती।नियति कम क्रूर मजाक नहीं करती।उनके लिए ये पंक्तियां एकदम सटीक हैं:
'एक व्यक्ति बनकर जीना महत्वपूर्ण नहीं बल्कि एक व्यक्तित्व बनकर जीना अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि व्यक्ति तो समाप्त हो जाता है लेकिन व्यक्तित्व सदैव जीवित रहता है। वे धरती पुत्र थे,सरस्वती के वरद पुत्र थे:
'एक मुखतसर सी वजह है मेरे झुककर मिलने की,मिट्टी का बना हूं गुरुर जंचता नहीं मुझ पर।'
फुर्सत मिलने पर हमेशा अपना सुख-दुख सांझा करते और हम शिष्य अपनी कहते।कविवर निराला की ये पंक्तियां उन पर बखूबी चरितार्थ हो रही हैं:
'धिक जीवन जो सदा ही पाता आया विरोध।
धिक साधन जिनके लिए सदा ही किया शोध।।'
वे महामानव थे,मसीहा थे:
'वह पथ क्या,पथ की कुशलता क्या जिस पथ में बिखरे शूल ना हों।
वो नाव क्या,नाविक के धैर्य की पहचान क्या, यदि धाराएं प्रतिकूल ना हों।।'
उनकी प्रतिबद्धता नितांत समाज सापेक्ष रही:
'लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल।
नम होगी यह मिट्टी जरूर, आंसू के कण बरसाता चल।।'
प्रोफ़ेसर (डॉ.)रामसजन पांडेय हमारे गौरव थे और उनके होने भर से हम गौरव से भर जाते थे।वे व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्थान थे।वे अपने सभी शिष्यों,मित्रों पर इतनी स्नेह-वर्षा करते थे कि उस सुधा रस से सब तृप्त और धन्य हो जाते थे।आज उनके जाने पर विगत 17 वर्षों की स्मृतियां एक-एक कर आंखों के सम्मुख तैर रही हैं।अपने छात्रों,मित्रों का इतना सत्कार करना,उनकी एक-एक छोटी बात का ध्यान रखना,हर फोन का प्रत्युत्तर देना,न दे पाने पर स्वयं फोन करना आदि अनेक दिव्य गुण थे जिनसे हर कोई उनकी ओर आकृष्ट हो जाता था।वे बोलकर कम,आचरण से अधिक सिखलाते थे।वे संत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान ही नहीं; वास्तव में इस धरा के सच्चे संत थे।एकादशी के दिन उनका महाप्रयाण निश्चय ही परमात्मा में विलीन होना है।वह दिव्य आत्मा हमें बहुत देकर परमात्म-तत्व में समा गयी।हे विजयंत व्यक्तित्व,आपको खोकर मैं, अपनी अस्मिता से सचमुच विरहित महसूस कर रहा हूं।हे गहरे अध्येता,हे हमारे जैसे सैंकड़ों लोगों के निर्माता,हे संत साहित्य के पुरोधा,हे काव्यशास्त्र-मर्मज्ञ,हे मध्यकालीन कविता के अधिकारी विद्वान, हे दबंग व्यक्तित्व, हे अवध के योद्धा, हे मानवता के पुजारी, हे इंसानियत के महासागर, हे सनातन पुरुष, हे संघर्ष और हौंसले की प्रतिमूर्ति, हे जुबान के धनी, हे अहमशून्यता से लबरेज, हे सहजता और सादगी की मिसाल, हे कर्मयोगी, हे साहित्य पर भारतीय दृष्टि से विचार करने वाले साधक, हे सनातन पुरुष, हे पालनहार, हे अपनी ज्ञान-गंगा में अवगाहन कराने वाले शिखर-पुरुष, हे शिष्यों की आपदा-विपदा हरकर खुद जीवन भर हलाहल पीने वाले शिव- आपको इस मानस पुत्र का बारंबार साष्टांग प्रणाम, अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! आप सदैव हमारे अंग-संग रहेंगे।आप हमारे लिए कभी 'स्वर्गीय' नहीं हो सकते।ये शब्द लिखना,सोचना भर कंपा दे रहा है।आपसे बात किए बिना एक दिन नहीं गुजरता था और एक आज है..टूंटूंगा तो आप दुखी होंगे और मैं ऐसा नहीं कर सकता।मैं अब हर रोज किसे प्रणाम करूं,लिखूं!आप मेरा सर्वात्म थे,सर्वस्व थे। हमारी वजह से कभी जाने-अनजाने आपका दिल दुखा हो तो हमें नादान मानकर भूलों को माफ कर देना।आप सदैव संबल थे,हैं और रहेंगे।ऐसे गुरु के शिष्य होने भर से हमारी मुक्ति का पथ प्रशस्त हो चुका है।आज पूरा देश गमगीन है।हिन्दी जगत रो रहा है:
'कबीरा जब पैदा हुए जंग हंसा,हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो,हम हंसें, जग रोये।।'
ईश्वर आपको श्री चरणों में स्थान दें और हमें आपके दिखाए मार्ग पर चलने की शक्ति, यही प्रभु से कामना है!''
अंत में केवल इतना ही :
'औरों को हंसते देखो,मनु हंसों और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,सबको सुखी बनाओ।।'
प्रस्तुति:
डॉ.सुनील कुमार
हिन्दी-विभाग
गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर