कविता/हर शै डरी हुई/नरेन्द्र मोहन

कविता/हर शै डरी हुई/नरेन्द्र मोहन
नरेन्द्र मोहन।

पहाड़ है?
जी हाँ, पहाड़ ही है
प्रकृति का अनन्य अनूठा करिश्मा
तांडव मुद्रा में आ जाए तो
प्रलय में डूबती सृष्टि का बहुआयामी हाहाकार
नदी है?
जी हाँ, नदी ही है
बहती-गाती-इठलाती धीमे-धीमे प्रवाह में
मौज में आ जाए तो बन जाती गरजता समुद्र
बहा ले जाती शहर-दर-शहर
भूकंप है?
जी हाँ, भूकंप ही है
ज़ोर की कंपकंपाहट, धड़ धड़ धड़ और धड़ाम
शहरों और बस्तियों पर टूटते पहाड़
हडकंप में नदियाँ उंगलियों से झरती रेत बन जातीं
देखते-देखते सभ्यताएं भू-लुंठित
कोने कोने में वायरस कोरोना
अज्ञात, अरूप, बिन आवाज़, बिन शक्ल
सनसनाता एक डर साक्षात
हर शै में चमचमाता
कोई विश्व युद्ध?
नहीं
कोई बड़ा विस्थापन?
नहीं
कोई हादसा, वहशी वारदात?
न  हीं  हीं - मैं चीखने की कोशिश में हकलाने लगता हूँ
मुझे मखदूम मोहिउद्दीन का शेर याद आ गया है:
‘दरिचे बंद गली चुप मुहर-ब-लब
मय्यते ठहरी हुई हैं बरसों से’।
    नरेन्द्र मोहन।