लघुकथा/लम्बी रातें/मनोज धीमान
पिछले कई महीनों से उसकी रातों की नींद उड़ गई थी। इतने बड़े घर में वह अकेला जो रह गया था। पत्नी के देहांत के बाद दिन तो किसी तरह निकल जाता। मगर रातें लम्बी, और लम्बी होने लगीं। टीवी प्रोग्राम देखे, पुस्तकें पढ़ीं, म्यूजिक सुना और भी ना जाने क्या क्या किया। अफ़सोस कि रातें छोटी होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। उसे आज भी याद है कि पत्नी की रस्म क्रिया के पश्चात बेटा विदेश चला गया। नौकरी भी तो करनी थी। बेटे ने भी तो अपना परिवार चलाना था। बेटी वापस अपने ससुराल लौट गई। कभी सोचा नहीं था कि कभी ऐसे भी दिन देखने पड़ेंगे। कुछ मित्रों ने सलाह दी। दूसरी शादी कर लो। बहुत सोच विचार किया। हर बार मन में विचार आया। बच्चे, रिश्तेदार, जान पहचान वाले क्या कहेंगे। कहते हैं तो कहें। बस। अब नहीं सहा जाता। आखिर कर ही ली उसने दूसरी शादी। जब बच्चों, रिश्तेदारों इत्यादि को मालूम हुआ तो उनका व्यवहार ही बदल गया। उसे तिरस्कारभरी नज़रों से देखने लगे। उसने किसी की परवाह नहीं की। शादी के शुरूआती दिन तो ठीक ठाक निकल गए। फिर नोक झोंक शुरू हो गई। उसकी दूसरी पत्नी उसमे अपने पहले पति को देखना चाहती थी। वह अपनी दूसरी पत्नी में पहली पत्नी को देखना चाहता था। इसलिए वे एक दूसरे की कमियों व बुराईओं को ढूंढने लगे। बात तलाक पर जा कर समाप्त हुई। उसे आर्थिक नुक्सान सहना पड़ा। समाज, परिवार से भी कट चुका था। एक बार फिर वह अकेला रह गया था। बिलकुल अकेला। उसे पहली पत्नी के ना रहने का दुःख तो था। लेकिन इससे अधिक प्रसन्नता उसे दूसरी पत्नी से छुटकार पा लेने की थी। बिस्तर पर जाते ही वह इसी ख़ुशी और ग़म में डूब जाता। सोचते सोचते वह कब नींद के आगोश में चला जाता। उसे मालूम ही ना पड़ता।