'हॉर्न ओके प्लीज' की पहेली क्या है कोई नहीं जानता
हॉर्न ओके प्लीज - ट्रकों के पीछे आपने ये तीन शब्द अक्सर देखे होंगे। यह नजारा पूरे देश में देखने को मिलता है। इसका मतलब क्या होता है और किसने सबसे पहले यह लिखना शुरू किया, कोई नहीं जानता। कहते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के समय जब डीजल की किल्लत हो गई, तब ट्रकों में कैरोसीन डालना पड़ा। सुरक्षा की दृष्टि से आपस में दूरी बनाये रखना जरूरी हो गया, तो पीछे लिख दिया गया - हॉर्न ओके प्लीज। इसके बारे में एक कहानी और है। वो यह कि पहले भारतीय ट्रकों पर टाटा का एकाधिकार होता था। उनके एक डिटर्जेंट साबुन 'ओके' का प्रचार करने के लिए ट्रकों पर हॉर्न प्लीज के बीच में बड़े अक्षरों में ओके लिखा गया। पुराने ट्रकों में अक्सर इंडीकेटर और रियर व्यू मिरर नहीं होते, इसीलिए हॉर्न बजाना जरूरी हो जाता है। हालांकि, पहले के दिनों में सड़कें संकरी होती थीं, तब हॉर्न की जरूरत ज्यादा होती थी। अब ज्यादातर सड़कें मल्टी-लेन हैं, और नये ट्रकों में इंडीकेटर और मिरर भी लगे होते हैं, फिर भी 'हॉर्न ओके प्लीज' लिखना जारी है। हालांकि, महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में, कमर्शियल वाहनों के पीछे 'हॉर्न ओके प्लीज' लिखने पर पाबंदी लगा दी थी। इसके पीछे दलील यह थी कि इससे वाहन चालक हॉर्न का बेजा इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित होते हैं, जिससे ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है।
हॉर्न को लेकर केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की अपनी अलग ही सोच है। वह चाहते हैं कि एक ऐसा कानून लाया जाये जिसके तहत मोटर हॉर्न से भारतीय वाद्ययंत्रों की आवाजें सुनायी दें। गडकरी की चली तो गाड़ियों से टींटी की जगह बांसुरी, तबला, वायलिन, माउथ ऑर्गन और हारमोनियम का संगीत सुनायी देगा। एम्बुलेंस और पुलिस की जीप से भी सायरन की जगह आकाशवाणी पर सुबह-सुबह बजने वाली मनमोहक धुन सुनायी देगी। ऐसा सोचना भले ही दिलचस्प लगे, लेकिन यह एक अजीब सा विचार है। हॉर्न का मुख्य काम चेतावनी देना होता है, न कि ऐसा मनोरंजन कर देना कि लोग मुड़-मुड़ कर देखने लगें और भूल ही जायें कि उन्हें साइड से हटना है या दूसरे वाहन को रास्ता देना है। यह सच है कि राजमार्गों पर और शहरों में तेज हॉर्न बजाने का इतना चलन हो गया है कि सिर चकरा जाता है। तेज हॉर्न के साथ तेज स्पीड से चलने पर दुर्घटनाएं होना भी स्वाभाविक है।
भारत में हर साल 5 लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जिनमें करीब डेढ़ लाख लोग मारे जाते हैं और लाखों लोग घायल होते हैं। दुर्घटनाओं के कारण भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का तीन प्रतिशत हिस्सा खो देता है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि आठ घंटे तक 93 डेसिबल से अधिक शोर के बीच रहने से सुनने की क्षमता कम हो सकती है। यूरोपीय देशों में वाहनों के हॉर्न की शोर सीमा 87 से 112 डेसिबल होती है। दिल्ली एनसीआर व चंडीगढ़ सहित महाराष्ट्र और तमिलनाडु के कई शहरों में मल्टी-टोन हॉर्न के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लागू है। तेज हॉर्न बजाने वालों पर और अनावश्यक रूप से हॉर्न बजाकर शोर करने वालों पर कानूनी सख्ती होनी चाहिए। इस बारे में निरंतर जागरूकता जरूरी है। कुछ लोगों में धैर्य की कमी है, इसलिए वे जबरन हॉर्न बजाते हैं। उन्हें सबक मिलना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व कॉलमिस्ट हैं)