हरियाणवी भाषा का उत्थान ऐसे कैसे?

हरियाणवी भाषा का उत्थान ऐसे कैसे?

-*कमलेश भारतीय
हरियाणा सन् 1966 को पहली नवम्बर को अस्तित्व में आया। 
देसां में देस हरियाणा, जित दूध दही का खाना लेकिन बोल कुबोल ये कि यह 'कल्चर' का नहीं, 'एग्रीकल्चर' का प्रदेश है । इस तोहमत को अनूप लाठर, यशपाल शर्मा, सतीश कौशिक, राजीव भाटिया, दरियाव सिंह मलिक, ऊषा शर्मा, रामपाल बल्हारा, जगबीर राठी, महावीर गुड्डू मनीष जोशी आदि ने दिल पे ले लिया और आखिरकार इसे कल्चर से जोड़कर दिखा ही नहीं दिया बल्कि मनवाया भी । चंद्रावल के बाद‌ दादा लखमी ने हरियाणवी संस्कृति से परिचित करवाया ही नहीं, जोड़ा भी। 
इसके बावजूद न इसका अपना हाईकोर्ट है, न अपनी राजधानी और‌ न ही इसकी अपनी भाषा ! जहां तक अपना हाईकोर्ट और अपनी राजधानी की बात है तो इसके लिए एम एम चोपड़ा प्रदेश भर की बार एसोसिएशन में जा रहे हैं और इस अभियान को विधानसभा चुनाव से जोड़कर सभी राजनीतिक दलों से सवाल पूछ रहे हैं । उन्हें यह भी जोड़ लेना चाहिए कि अपनी भाषा कब होगी? 
 हरियाणवी बोली को भाषा बनाने की मांग को लेकर भिवानी से बी एम बेचैन बहुत बेचैन हैं और यहां भी बस चलता है अपनी भाषा के लिए आवाज़ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन अब हरियाणा हिंदी संस्कृति व साहित्य अकादमी की ओर से हरियाणवी भाषा उत्थान समिति गठित की गयी तो बेचैन, राजबीर देसबाल, रामफल खटकड़, सत्यवीर नाहड़िया और सरोज दहिया को विशेष आमंत्रित सदस्यों में डाल कर इनके योगदान की इतिश्री कर दी । यह तो कोई गंभीरता से, निष्ठा से काम करने की कोशिश नहीं कही जा सकती । यदि आप हरियाणवी भाषा के प्रति गंभीर हैं तो आपकी कोशिश भी औपचारिक नहीं बल्कि पूरे मन और समर्पण से की जानी चाहिए । खुद हरियाणा साहित्य एवं संस्कृतिअकादमी में हरियाणवी प्रकोष्ठ के निदेशक धर्मदेव विद्यार्थी भी इसके सदस्य हैं, जबकि वे संयोजक होने‌ चाहिएं । दूसरी बात सूची में कुछ ऐसे नाम भी शामिल कर लिये, जिन कि हरियाणवी से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं। सूची पर पुनर्विचार होना जरूरी है। 
हरियाणवी भाषा में बहुत सा साहित्य उपलब्ध है। इसको खोजने और प्रचारित करने का अभियान किया जाना चाहिए न कि सिर्फ उत्थान समिति तक सीमित रहना चाहिए । शायद कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा ली हों अकादमी से, तो माफ कीजिये । वैसे प्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय डॉ इंद्र नाथ मदान ने मेरे साथ इंटरव्यू में बड़ी कड़वी बात कही थी कि भाषाओं का काम सरकारी अकादमियों ने कभी शुरू में किया, फिर तो रूटीन का काम हो गया और बैठकों के नाम पर खाना पीना हो गया ! फिर भी दुष्यंत कुमार के शब्दों में :
दस्तको़ं का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर
हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेकरार!! 

-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी