समाचार विश्लेषण/विश्व पर्यावरण दिवस पर 

आह , प्रकृति हमें कितना देती है .....

समाचार विश्लेषण/विश्व पर्यावरण दिवस पर 
कमलेश भारतीय।

-*कमलेश भारतीय 
साहित्य बालपन से ही अपनी ओर आकर्षित करता रहा । आज विश्व पर्यावरण दिवस पर हिंदी के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की कविता -आह , धरती कितना देती है बरबस ध्यान में आ रही है । दो बार नैनीताल तो गया पिछले सालों में लेकिन उनके जन्मस्थान अल्मोड़ा न जा पाया । फिर भी जो संदेश वहां जाकर मिलता वह बचपन से ही ले लिया था । संयोग से मैं भी एक गांव से जुड़ा आदमी हूं । गांव, खेत ,खलिहान और हरियाली से बचपन से ही गहरा नाता जुड़ गया था । पंत जी की कविता आह , धरती कितना देती है मन में घर कर गयी थी कि बाल मन पर सदैव के लिए अंकित हो गयी । जहां भी रहता हूं हरियाली के बीच रहता हूं ।
कविता का संदेश बहुत साफ स्पष्ट कि धरती में बच्चा यानी आधुनिक मनुष्य इस इच्छा से पैसे बो देता है कि ये पेड़ पौधों की तरह फले फूलेंगे लेकिन ऐसे कहां होता है ? पैसे भी नही मिलते । इसीलिए किसी ने कहा है कि प्रकृति आपकी जरूरतें तो पूरी कर सकती है लेकिन आपका लालच पूरा नहीं कर सकती ।  जैसे जैसे मनुष्य का लालच प्रकृति से बढ़ा वैसे जंगल कटते चले गये और कंक्रीट और बंजर मैदान बढ़ते गये । मनुष्य ने जंगल काटे और अपने सपनों के महल बनाये । इसीलिए पेड़ों को बचाने के लिए पहले गुरु जम्भेश्वर यानी जाम्भो जी ने संदेश दिया जिसे आज तक उनके अनुयायी यानी बिश्नोई समाज अपनाये हुए है । पेड़ों के लिए शहीद हो जाने की भावना भी भर दी । राजस्थान से चला यह संदेश विश्व भर में फैल चुका है । इसी संदेश को नये रूप में प्रस्तुत किया उत्तराखंड के सुंदर लाल बहुगुणा ने , जिन्होंने चिपको आंदोलन चलाया और पर्यावरण रक्षा के लिए जागरूक किया । अभी कुछ वर्ष पहले ही में वे इस दुनिया को अलविदा कह गये हैं । उनके बेटे राजीव नयन बहुगुणा उनकी मशाल को जलाये हुए हैं । कोरोना काल में सबसे बड़ी समस्या ऑक्सीजन की ही आई । ऑक्सीजन के लिए चारों तरफ मारा-मारी मची । इसके बावजूद इंसान का लालच यहां भी पीछा नहीं छोड़ता । ऑक्सीजन की कालाबाजारी की जा रही है । यदि हमने पेड़ों की रक्षा की होती तो यह नौबत कभी न आती पर हमने तो प्रकृति का बुरी तरह दोहन किया जिससे आज प्रकृति हमसे अपना बदला लेने लगी है । इसीलिये सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि यदि हमने पेडों को सीचा होता तो आज कूलरों में पानी भरने की जरूरत न पड़ती ! हमने पहाड़ों को भी नहीं छोड़ा । पर्वतीय स्थलों पर घूमने जाते हैं और टनों कचरा फेंक आते हैं हर वर्ष । प्रकृति अपनी दुर्दशा पर चुपचाप आंसू बहाती है । हम प्रकृति का रुदन न देखते , न सुनते । फिर प्रकृति अपने रौद्र रूप में उत्तरकाशी में आती है और सब कुछ तहस नहस कर देती है । कभी बादल फट जाते हैं । फिर भी हम प्रकृति का पैगाम समझने की कोशिश नहीं करते । इसी प्रकार अभी दो दिन पूर्व हमने विश्व साइकिल दिवस मनाया लेकिन अब साइकिल चलाना फैशन और प्रचार का माध्यम बना । यदि हमने साइकिल का उपयोग जारी रखा होता तो आज पेट्रोल के बढ़ते दाम हमें रुला न रहे होते । पेट्रोल डीज़ल की गाड़ियों से प्रदूषण के खतरे बढ़ रहे हैं ।
पांच जून को पर्यावरण दिवस मना कर इतिश्री कर लेते हैं । एक शेर के साथ बात समाप्त करता हूं : 
जो घर बनाओ तो इक पेड़ लगा लेना
परिंदे सारे घर में चहचहायेंगे ...

-*पूर्व उपाध्यक्ष , हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।