भगवान् का कितना अंश बचा डाॅक्टर में?
-*कमलेश भारतीय
हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने रोहतक पीजीआई के दीक्षांत समारोह में कहा कि डाॅक्टर को जनता भगवान् मानती है । ऐसे में डाॅक्टर को अपने पेशे को समाजसेवा का माध्यम बना लेना चाहिए । सेवाभाव से किये हर कार्य से परिवार में समृद्धि आती है । इस तरह महामना राज्यपाल ने डाॅक्टर के रूप में उन्हें भगवान् के बहुत करीब माना । पर आजकल आप जो स्थिति बड़े या छोटे अस्पतालों में देखते हैं, क्या वह डाॅक्टर को इसी रूप में, इसी छवि में प्रस्तुत करती है? मुझे याद है वह सन् 1999 का तेइस सितम्बर, जब मेरी बेटी के जीवन में भयंकर तूफान आया था और मैं उसे एम्बुलेंस में पीजीआई रोहतक में लेकर पहुंचा था । बेटी का छह घंटे लम्बा ऑपरेशन चला और वह ज़िंदगी की लड़ाई जीत गयी । डाॅक्टर एन के शर्मा ने पूछा कि क्या आपको विश्वास था कि बेटी का ऑपरेशन सफल होगा ? मैंने जवाब दिया कि डाॅक्टर शर्मा आप भी नहीं जानते, जब आप मेरी बेटी का ऑपरेशन कर रहे थे तब आपके नहीं वे हाथ भगवान् के हाथ थे, उस समय आप भगवान् के बिल्कुल करीब थे, जिससे मेरी बेटी को भगवान् ज़िंदगी लौटा गये । डाॅक्टर शर्मा की आंखों में भी खुशी के आंसू थे और मेरी आँखों में भी । इसमें उन दिनों मंत्री और मेरे मित्र प्रो सम्पत सि़ह का भी योगदान रहा, जो पता चलते ही दूसरे दिन वे पीजीआई, रोहतक के डायरेक्टर के पास पहुंचे और मुझे भी बुला लिया । इस तरह हम तीन माह के बाद पीजीआई से मुक्त हुए लेकिन सचमुच भगवान् के दर्शन हो गये ।
आजकल क्या ऐसे भगवान् बच रहे हैं? प्राइवेट अस्पताल अब पांच सितारा होटल जैसे हो गये हैं और इनका सारा खर्च मरीज के परिजनों से ही वसूला जाता है। बड़े बड़े अस्पतालों की खबरें आती हैं कि लाखों लाखों रुपये का बिल बना दिया और परिजन परेशान हो रहे हैं घर तक बिकने की नौबत आ जाती है, बैंक बेलेंस खाली हो जाते हैं । एक घटना और याद आ रही है। बेटी डेंगू से पीड़ित थी और डाॅक्टर अजय चौधरी ने उसका इलाज करना शुरू किया और बड़े विश्वास से कहा, कि मैं इसे ठीक कर दूंगा और उपचार शुरू किया। एक दिन बेटी के प्लेटलेट्स चढ़ाये जा रहे थे कि मुझे अज्ञात नम्बर से फोन आया और कहा गया कि आप फलाने अस्पताल पहु़ंच जाइये ! हम तोशाम के निकट खानक के मज़दूर हैं और हमारे एक साथी की मृत्यु इलाज के दौरान हो गयी है, डाॅक्टर हमें शव ले जाने नहीं दे रहे । मैं चलने लगा तो पत्नी ने रोकने की कोशिश की कि आपकी बेटी ज़िंदगी से लड़ रही है और आप दूसरों के लिए भाग रहे हो ? मैंने कहा कि क्या पता उनकी दुआ मेरी बेटी को लग जाये और मैंं उस अस्पताल गया, जहां वे लोग मेरी राह देख रहे थे, डाॅक्टर के चैम्बर में उनके साथ गया और विनती की कि आप इनके साथी का पार्थिव शरीर दे दीजिए लेकिन डाॅक्टर का कहना था कि ये हमारे पैसे नहीं दे रहे, इस पर मजदूरों ने बताया कि हमारी यूनियन ने चंदा इकट्ठा किया है और वही हमारे पास है, इससे ज्यादा की हमारी हिम्मत नहीं । डाॅक्टर ने कहा कि मैं तो अपनी फीस छोड़ दूंगा लेकिन मेरे सहयोगी डाॅक्टर नहीं मानेंगे । मैंने कहा कि फिर ठीक है, मेरे सहयोगी पत्रकार मेरी बात मान जायेंगे और अभी आकर लाइव चला देंगे, फिर आपका क्या होगा, यह विचार कर लीजिए । बस, वे सयाने और अनुभवी थे, उन्होंने बिना एक रुपया लिए उन्हें उनके साथी का शव सौंप दिया लेकिन ऐसी नौबत अनेक अस्पतालों में आती है और आये दिन ऐसी शर्मसार करने वाली खबरें भी पढ़ने को मिलती हैं । कृपया भगवान् का रूप बने रहिये । उदय भानु हंस ने कहा भी है :
मैं न मंदिर न मस्जिद गया
कोई पोथी न बांची कभी
एक दुखिया के आंसू चुने
बस, मेरी बंदगी हो गयी !
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।