कितना जिम्मेदार रह गया है मीडिया?
-*कमलेश भारतीय
मीडिया के बारे में पता नहीं क्यों मुझे 'मेरा नाम जोकर' का गीत याद आ जाता है :
ऐ भाई जरा देख के चलो
आगे ही नहीं ; पीछे भी
ऊपर ही नहीं , नीचे भी ...
दायें ही नहीं , बायें भी ...
मीडिया यही जिम्मेदारी निभाता है कि ऐ आम आदमी , अरे जनता जनार्दन , हालात बिगड़ते जा रहे हैं और अपने आसपास देख कर चलो । अपने आसपास को समझो । समय को पहचानो । पर हमारे सीजेआई यानी प्रधान न्यायधीश कह रहे हैं कि मीडिया झूठ का एजेंडा चला रहा है । सामाजिक मुद्दों पर टीवी डिबेट और सोशल मीडिया पर चलाये जाने वाले अधकचरे कंगारू कोर्ट लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह हैं । सीजेआई के मुताबिक अभी प्रिंट मीडिया जवाबदेह है लेकिन इलैक्ट्रानिक मीडिया में जवाबदेही खत्म हो चुकी है । सीजेआई ने कहा कि नये मीडिया के पास चीजों को फैलाने की अपार क्षमता है लेकिन वह सही गलत और अच्छे बुरे में अंतर नहीं कर सकता । इलैक्ट्रानिक मीडिया एजेंडा प्रेरित डिबेट करता है । इससे लोग बुरी तरह प्रभावित होते हैं । इसलिए सोशल मीडिया पर जवाबदेही बहुत जरूरी है ।
यह सोशल मीडिया ही तो था कि उदयपुर के एक टेलर मास्टर ने नुपूर शर्मा के पक्ष में पोस्ट क्या लिखी कि उसकी जान पे बन आई । एक विद्वान् न्यायधीश ने जब नुपूर शर्मा को लताड़ लगाई कि यह आपकी ही घृणित टिप्पणी का दुष्परिणाम है तो अंधभक्त न्यायधीश के पिता के कांग्रेसी होने के फोटोज निकाल लाये । ऐसा क्या बुरा कहा न्यायाधीश महोदय ने ? इतना क्या कम है कि गिरफ्तार करने के आदेश नहीं दिये । नूपूर शर्मा की यह टिप्पणी टीवी डिबेट में ही की गयी थी जिससे मुस्लिम देश बुरी तरह खफा हो गये थे और उनके दबाब में आकर ही नुपूर शर्मा पर कार्यवाही की गयी थी । टीवी डिबेट में सिवाय चिल्ल पों और एक दूसरे को नीचे दिखाने के कुछ नहीं होता । कोई प्रतिभागी समय मांगता ही रह जाता है और दूसरा चिल्लाये जाता है । ऐसे रायता फैलाने के कार्यक्रम किस काम के हैं ? क्या योगदान है इनका ? इस पर विचार करना चाहिए । नहीं तो दर्शकों की बाट देखते रह जाओगे ।
प्रिंट मीडिया को अभी जवाबदेह माना है , यह खुशी की बात है । पहले संपादक के नाम पत्र हर समाचारपत्र में होते थे और इन पर कोई न कोई कार्यवाही भी होती थी लेकिन अब यह काॅलम भी सोशल मीडिया की भेंट चढ़ गया है । इसकी गंभीरता व उपयोगिता खत्म होती जा रही है ।संपादकों को इसे रोचक बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए ।
जब पत्रकारिता में कदम रखा था तब यह मंत्र दिया गया था कि बेलेंस बना कर लिखना है । किसी की पगड़ी उछालनी नहीं और किसी को ज्यादा उठाना भी नहीं कि बाद में कभी शर्मिन्दा होना पड़े । मेरे गुरु जैसे ही हैं पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के कभी अध्यक्ष रहे व प्रसिद्ध कथाकार डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता । उन्होंने मेरे दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक चुने जाने पर कहा था कि कमलेश , मुझे बहुत डर लग रहा है कि हिंदी का एक प्राध्यापक, एक अच्छे स्कूल का प्रिंसिपल, एक होनहार कथाकार पत्रकारिता में कदम रखने जा रहा है । अब चुने गये हो । बहुत बहुत बधाई लेकिन हर किसी के चेहरे पर गुलाल ही मलने जितनी आलोचना करना , किसी के चेहरे पर कीचड़ मत मलना । बस । मेरी इतनी सलाह मान लो । मैं दैनिक ट्रिब्यून ऑफिस में चुने जाने के बाद डाॅ मेहंदीरत्ता से आशीष लेने उनके घर गया था । यह प्यारी सी सीख आज भी बड़े काम आती है और बेलेंस करने का गुर भी याद रखता हूं । कहीं किसी पर ज्यादा सख्त टिप्पणी लिखने से संकोच करता हूं । इसीलिए मेरी धरने प्रदर्शन की रिपोट्स पर हिसार में कभी जनसत्ता के रिपोर्टर रहे प्रसून लतांत ने मुझे हंसी हंसी में कहा था कि आप तो लाठीचार्ज का भी ऐसा वर्णन करते हो जैसे लाठी नहीं फूल बरसाये जा रहे हों ।
मीडिया ने सुशांत सिह राजपूत केस को ऐसे मीडिया ट्रायल बनाया कि आज तक भेद नहीं खुला कि असल में हुआ क्या था लेकिन अपनी अपनी टीआरपी बढ़ाने में सभी चैनल लगे रहे । रिया चक्रवर्ती के पिता ने भी कहा कि मीडिया ने मेरी बेटी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा । एक चैनल तो सारी कार्यवाही ऐसे बताता था जैसे सब उसके सामने घटा हो ।पूछते ही रहे लेकिन मनमानी रिपोर्ट देते रहे । कहां थी जवाबदेही ? अब तक सुशांत का परिवार पूछ रहा है । बताओ न क्या हुआ आपकी तहकीकात का ? कभी सिरसा से सीबीआई के पंचकूला स्थित कार्यालय जाने पर मीडिया ने जो घंटों कारों के काफिले की कवरेज दिखाई , उसका क्या मतलब था ? सिवाय एक तथाकथित बाबा के महिमामंडन के ? पंचकूला आग की भेंट चढ़ गया तो किसकी गलती से ? पुलिस प्रशासन फेल रहा और बाबा को सड़क के रास्ते न ले जाकर हेलीकॉप्टर से सुनारिया जेल तक ले जाना पड़ा । उसकी मुंहबोली बेटी हनीप्रीत ने खूब लुका छुप्पी का खेल खेला । कितनी कवरेज का हकदार था ? हमारे एक समाचार संपादक थे योगेन्द्र भाटिया जी । वे ऐसी कवरेज पर कहते थे -चवन्नी का नेता नहीं था और रुपये के बराबर कवरेज कर दी । इसकी जवाबदेही किस पर आयेगी ?
अपनी अंतरात्मा से बढ़कर कोई न्यायाधीश नहीं मित्रो । यदि आपकी आत्मा आपकी रिपोर्ट को सही कहती है तो जरूर लिखिए नहीं तो सौ बार सोचिये प्रकाशित होने से भेजने से पहले । मेरी गुरु तो मेरी धर्मपत्नी नीलम भी है जो दूसरे दिन मेरे से पहले मेरी सारी रिपोर्ट्स पढ़ती थी और किसी किसी खबर पर कह देती कि इसे लिखे बिना भी रह सकते थे कि नहीं ? यह एक सामाजिक प्रतिक्रिया थी । मैं इस सलाह पर भी गौर करना जरूरी समझता रहा ।
आप भी सोचिये । हर तरफ निगाह रखिये ।
आगे ही नहीं , पीछे भी
ऐ भाई जरा देख के चलो ..
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।