कहानी/जादूगरनी/कमलेश भारतीय
एक स्त्री का मर्म ब्यान करती कहानी
चांद झांकता है जैसे झील के पानी में, वैसे ही मन झांकता है अतीत के तल में। यह जो नदी बल खाती हुई, लहराती हुई सडक़ के साथ-साथ जा रही है न जब आगे मोड़ आएगा, नदी अलग मुड़ जाएगी और सडक़ अलग। बस, इस नदी के किनारे आगे जाकर हमारा गांव है। बिल्कुल इस नदी के साथ लगती हमारी जमीन है-लहलहाती हुई फसलें हैं और हंसाती-रुलाती यादें हैं। तभी मैंने कहा था न कि चांद झांकता है जैसे झील के पानी में और मन झांकता है अतीत की परछाई में।
जब-जब बस इस रास्ते पर चलती है मैं सडक़ की बजाय नदी के साथ बहते-बहते अपने गांव पहुंच जाता हूं। पता नहीं गांव और गांव की यादें मेरे अंदर इतने गहरे क्यों बसी हुई हैं? अपने-अपने मन और स्वभाव की बात होती है न। अब मेरे भाइयों को ही लो उन्होंने अपने-अपने हिस्से की जमीन बेच दी है, शहर में कोठियां बनाई हैं, प्लॉट खरीदे हैं और कई कंपनियों के शेयर भी। उन्होंने व सगे-संबंधियों ने जमीन न बेचने पर मुझे एकदम बेवकूफ करार दिया है-जैसा जमाना जा रहा है उसके मुताबिक शायद वे ठीक ही कहते होंगे-आप भी शायद उनसे ही सहमत होंगे पर मैं जमीन से जुड़ा हुआ हूं-अंदर तक कहीं गहरे। फिर मैंने कहा भी था कि अपने-अपने मन और स्वभाव की बात होती है-नहीं?
वैसे कई बार मैंने अपने मन को टटोला है-यह जानने के लिए कि राजधानी में बस जाने के बावजूद यह गांव मेरे मन में कैसे बसा हुआ है? इस पर महानगर का रंग क्यों नहीं चढ़ गया?
मन की परतें हटाते-हटाते एक दृश्य साफ-साफ आंखों के सामने उतर आया है। मैं एक बीमार शख्स के सिरहाने धकियाते हुए खड़ा कर दिया गया हूं। वह शख्स कातर निगाहों से मेरी ओर देख रहा है, आंखों में आंसू झर रहे हैं और वह मेरा हाथ पकड़ कर कह रहा है बेटे। मैं अब बचूंगा नहीं। तुम गांव जाया करना। रास्ता कच्चा है और तेरी उम्र भी कच्ची है पर मेरी बात पक्की तरह गांठ बांध लो-गांव जाते रहना। जमीन मां की तरह होती है, लेती कुछ नहीं हमेशा कुछ न कुछ देती ही है।
वह शख्स मेरा बाप था। इतना मंत्र कान में फूंक कर गुजर गया। तब से मैं गांव जाने लगा-कच्ची पगडंडी पर कभी गिरते, कभी उठते, सीख गया गांव पहुंचना।
गांव में हमारी हवेली है। जितनी पुरानी हवेली है, उतना ही बूढ़ा नौकर है क्योंकि बचपन से ही दोनों को एक-साथ देखता आया हूं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि हवेली में जाऊं और वह नौकर वहां न मिले। हां, सदा से दोनों ऐसे नहीं थे। हवेली के दिन भी फिरते रहे हैं और नौकर के भी। हमारी हवेली में एक नीम का पेड़ भी है। घनी छाया देने वाला नीम का पेड़। कई दु:खभरी दुपहरियां मैंने उस नीम के पेड़ की छाया में बिताई हैं। ऐसी ही एक दु:खभरी दुपहरी में मैंने अपने बुजुर्ग समान नौकर से कहा था-मैं भी अपने हिस्से की जमीन बेच डालूंगा।
उसकी आंखों से आंसू झर-झर निकले थे। बरसों पहले जैसे मेरे बाप की आंखों में बहे थे। उन आंखों की बेबसी तब मेरे सामने आई थी। उसने कहा था-न बेटे। जमीन मां की तरह होती है, लेती कुछ नहीं, हमेशा कुछ न कुछ देती ही है और वह शख्स उस पाठ में बरसों बाद कुछ नई बातें जोड़ते कह रहा था-बेटे। तुम्हारे पुरखों ने इस जमीन-जायदाद के लिए अपनी जिंदगियों से भी लंबे मुकदमे लड़े और तुम एक फूंक मारकर उन भले मानसों का नाम ही गांव से मिटाने चले हो। पुरखों के नाम की निशानी तो रख लो।
उन आंखों में, उन आंसुओं में, उन लफ्जों में ऐसा कुछ था कि मैं फिर जमीन बेचने की हिम्मत नहीं बटोर पाया पर देखा जाए तो सडक़ और नदी के बीच बंट कर रह गया।
अब आप मेरे गांव और नौकर तक को जान ही चुके हैं। हवेली के बारे में भी बता चुका हूं। आप उसकी बहू के बारे में नहीं जानना चाहेंगे? यों तो उसकी बहू में आपकी क्या दिलचस्पी हो सकती है पर सारा गांव उसे जादूगरनी के रूप में जानता है। अब जादूगरनी के बारे में जानने की उत्सुकता किसे नहीं होगी? मैं भी जब गांव जाता हूं तब सबसे पहले उसी के बारे में पूछता हूं कि जादूगरनी कहां रहती है? आजकल किस पर अपना जादू चला रही है?
वैसे तो जब वह नई-नवेली दुल्हन बनी थी तब उसकी डोली हवेली में ही उतरी थी। छम-छम करती वह हवेली के आंगन में आई थी। उसके रूप-रंग के आगे हमारे नौकर का अधपगला बेटा एकदम फीका पड़ गया था। आस-पड़ोस की घरों की औरतें भी दांतों तले उंगली दबाकर रह गई थीं और यह सवाल आते-आते रुक गया कि ऐसी गौरी चिट्टी लडक़ी इस पगले लडक़े के पल्ले क्यों बांध दी? मां-बाप की ऐसी क्या मजबूरी रही होगी?
नई-नवेली दुल्हन का नाम स्वर्णी था। स्वर्णी में कुछ ऐसा जादू था, आंखों में कुछ ऐसा आकर्षण था कि बस जो देखता उसके बुलावे को अनसुना नहीं कर सकता था। छोटे से गांव में उसकी चर्चा जल्दी ही फैलती चली गई। औरतें उसे जादूगरनी पुकारने लगीं और गांव-भर के लोग उसका असली नाम भूलते गए।
स्वर्णी ने अपने पहले बच्चे को वक्त से पहले जन्म दिया तब उस सवाल का जवाब सबको मिल गया कि गोरी-चिट्टी लडक़ी लडक़े के पल्ले बांधने में आखिर मां-बाप की क्या मजबूरी रही होगी। नौकर का बेटा अधपगला ही सही पर इस बात को मंजूर न कर सका। बार-बार, दिन-रात उसके दिमाग में यही बात घूमने लगी। अंदर ही अंदर व घुलने लगा-वैसे ही उसकी देह-काया घुलने लगी-जैसे देखते ही देखते कोई मोमबत्ती पिघलती जाती है।
उन्हीं दिनों हमारे नौकर की बहन का बेटा शहर में कोई कोर्स करने आया तो उसने हवेली में मामा के पास ठिकाना बना लिया। बस, जादूगरनी का जादू उस पढ़े-लिखे नौजवान पर चल गया। वह उसे कभी-कभार शहर सिनेमा दिखाने साइकिल पर ले जाता। कभी उसके लिए कोई मनपसंद मिठाई छुपाकर ले जाता पर ऐसे छुपा-छुपी के खेल कभी छुपते हैं? कहते हैं प्यार और प्याज की खुशबू देर तक छुपी नहीं रहती।
नौकर के अधपगले बेटे का नाम तो मैंने आपको बताया ही नहीं। भुलक्कड़ हूं-बात कहे जा रहा हूं और नाम ले नहीं रहा हूं। भला-सा उसका नाम है। हां, याद आया। उसका नाम जौड़ा है। जौड़ा इसलिए कि हमारे नौकर के जुड़वां बच्चे हुए थे। सो नामकरण के लिए किसी पंडि़त-पाधे के पास न जाकर उसने लडक़े को जौड़ा और लडक़ी को जौड़ी पुकारना शुरू कर दिया था। लडक़े को अधपगला बनाने में वह अपनी पत्नी का कसूर मानता था। उसका कहना था कि वह भलीमानस उसे गोदी में लिए हुए किसी पीर के ऊपर से गुजर गई थी यों किसने देखा था और कौन जानता था कि इन बातों में कोई दम होता भी है या नहीं पर देखा जाए तो अपने बच्चे की देखभाल की ओर ध्यान दे पाने का सारा कसूर अपनी पत्नी के मत्थे मढऩे का एक आसान तरीका तो है ही। खैर। गढ़े-मुरदे उखाडऩे का क्या लाभ?
जौड़ा अधपगला था, पूरा पगला नहीं। इसलिए न समझते भी बहुत कुछ समझता था। देह इतनी मजबूत थी कि बोरी उठाकर दौड़ पड़ता। शादी हुई थी तो खुशी में स्वर्णी को शहर ले गया था-घुमाने। फिल्म दिखाई थी और नऐ जोड़े ने रंगीन फोटो भी खिंचवाई थी पर उसे वक्त से पहले बच्चे का बाप बनाकर हमउम्रों में मजाक का पात्र बना दिया। उस गुस्से को भडक़ा रही थी मामा के पास आए लडक़े की अपनी ब्याहता के साथ प्रेम-लीला की दंद-कथा।
एक रोज दोपहर को जौड़ा घास-फूस की गांठ लेकर घर आया तो खुले द्वार से अपने कमरे तक जाते ही सन्न रह गया। जो सुनता आया था वह एकदम सच होकर नजरों के सामने पड़ गया था। गुस्से में देह कांपने लगी थी, हाथ में पकड़ी दरांती धीरे से गिर पड़ी थी।
कहते हैं प्रेम अंधा होता है-वह कोई रिश्ता, कोई बंधन नहीं देखता, नहीं मानता रहा में किसी रुकावट को। स्वर्णी ने दरांती उठाकर बुत्त बने जौड़े के सिर पर दे मारी और बच्चे को गोदी में उठाए मायके पहुंच गई।
जौड़ा पीछे पूरा पागल हो गया। स्वर्णी की लाल जोड़े वाली चुन्नी, ब्याह के बाद खिंचवाई फोटो और कुछ चूडिय़ों के टुकड़े उठाए और गांव भर में डोलने लगा। सबसे पूछता एक ही सवाल-स्वर्णी तो नहीं देखी? स्वर्णी का पता है तुम्हें? सिर पर टांके लगे थे जो धीरे-धीरे भर गए, जख्म ठीक हो गया पर जौड़ा जमीदार के पास काम पर न लौटा। बस, हवेली की छत पर चढक़र गांव की ओर आने वाली हर पगडंडी को देखता रहता कि कहां स्वर्णी चली आ रही हो।
हमारे खेतों में बरसों से हल चलाने वाला दर्शन हमारे नौकर का सबसे करीबी दोस्त बन गया था। हवेली में जौड़ा कोई उधम न मचा दे, इस कारण वह वहीं सोने लग गया था। उसके कौन से बच्चे रोते थे। उसने शादी ही नहीं की थी और अब शादी की उम्र रही कहां थी? जौड़ा कभी-कभार मौका लगने पर बाप पर हाथ उठा देता था और ऐसे में काबू करता तो दर्शन ही।
दर्शन बीच-बचाव करके स्वर्णी को मायके से लौटा लाया। पर खुद भी हवेली में जौड़े के आतंक व पागलपन की दुहाई देकर डटा रहा।
इस बार स्वर्णी का व्यवहार कुछ बदला था। गृहस्थिनी की तरह चौका-बर्तन करती, घर बुहारती, कभी झाड़ू-पोचा भी लगाती। जौड़ा कुछ भी नहीं बदला था। हां, उसने फोटो घर में रख दी थी, चुन्नी कहीं फेंक दी थी। बस, घास-फूस की गांठ ला देता, बच्चे को थोड़ा-बहुत घुमा लेता।
स्वर्णी इस हाल में भी खुश थी। वह एक ऐसा रहस्य था जिसे हर कोई जानना चाहता था। दर्शन नौकर को न केवल चूल्हे-चौके का खर्च देने लगा बल्कि किसी-किसी रात दोनों शराब भी पीते और गाने भी गाते। हवेली जैसे खिल सी उठती, नशे में झूमने लगती।
एक सुबह दर्शन चारपाई से नहीं उठा। सोया तो लंबी नींद से नहीं जागा उस रोज जब मैं हवेली गया तो स्वर्णी लोक-लाज त्यागकर मेरे सीने से चिपककर फफक-फफक कर रोने लगी और धीरे-धीरे बुदबुदाती रही-मैं लुट गई... मैं लुट गई... मैं अब कैसे जिऊंगी... किसके सहारे जिऊंगी...।
उस रोज मैं भी बुत्त बना खड़ा रह गया था। स्वर्णी की खुशी और गमी का राज खुल गया था। दर्शन का हवेली में ही टिके रहना भी समझ में आ गया था-साफ-साफ। चूल्हे चौके से लेकर शराब पिलाने तक का खर्च उठाना दर्शन के लिए कोई महंगा सौदा न था। दर्शन की मौत के बाद स्वर्णी ने एक बच्ची को जन्म दिया था और लोगों का कहना था कि बच्ची की शक्ल-सूरत बिल्कुल दर्शन पर गई थी। अब जौड़ा अपना गुस्सा स्वर्णी पर निकाल सकता था और मौके-बेमौके गुस्सा निकालता भी था। वह और सब कुछ भूल गया था पर यह नहीं भूला कि स्वर्णी उसकी पत्नी है।
कुछ दिन स्वर्णी और उसका चूल्हा-चौका दोनों बुझे-बुझे रहे। कुछ दिन नीम के पेड़ से झरते पत्तों की तरह स्वर्णी की आंखों में आंसू झरते रहे। कुछ दिन हवेली उदास रही।
गांव वालों का मुंह कौन बंद कर सकता था? आसपास के घरों की औरतें उसे जादूगरनी कहने लगी थीं और पुरानी कहानियों को दोहरा कर अपने जवान बेटों को उसके पास भी न फटकने की सलाह देती थीं। कभी-कभी उसके पांव की मिट्टी उठाकर अपने बेटों पर कोई टोना करतीं। अपने नए नामकरण से स्वर्णी बेखबर नहीं थी। कभी किसी बच्चे को प्यार से गले लगाना चाहती या गोद में उठाना चाहती और वह बच्चा सहम कर पीछे हट जाता, मुंह फेर लेता तो वह खिलखिलाती हुई उसकी मां को सुनाती हुई कहने से न चूकती-अम्मा ने मना किया है जादूगरनी के पास जाने से। ले देख, मेरे और तेरी अम्मा के हाथों में क्या फर्क है? वही पांच-पांच उंगलियां हैं, गिन ले पर इन हाथों में जो जादू है, वह तेरी अम्मा के हाथों में कहां?
स्वर्णी की इस ललकार के आगे कोई औरत नहीं टिकती थी। कौन मुंह लगे ऐसी बेहया के साथ जिसे अपनी लाज नहीं, दूसरों की उतारने में एक पल लगाती नहीं।
नीम के पेड़ के पत्ते नए निकले, हवेली के दिन फिरे। स्वर्णी की उदासी भी झर गई, खिला चेहरा निकल आया। आस-पड़ोस में फिर बुदबुदाहट, फुसफुसाहट शुरू हुई-जादूगरनी का जादू फिर चल गया।
उस बार जब गांव गया तब हवेली में कई लोग इकट्ठे हो गए। जैसे वे लोग मेरे आने की राह कई दिनों से ताक रहे हों। पहले जब कभी गांव जाता था तब गली में, दुकान पर, खेतों या छोटे-बड़े समारोह में ये लोग इक्का-दुक्का मिल लेते थे। पुरखों को याद कर लेते या मेरे बच्चों का हाल-चाल पूछ लेते पर उस बार मामला कुछ संगीन लगता था।
-हम आपसे एक विनती करने आए हैं, छोटे लाला जी।
वे सब हाथ जोडक़र खड़े हो गए। गांव भर में हमारे बड़े-बुजुर्गों को ‘लाला जी’ कहकर ही पुकारा जाता था। जब से मैं गांव जाने लगा तब से ‘छोटे लाला जी’ का संबोधन पा गया।
-कहिए।
-आप स्वर्णी को हवेली से निकाल दीजिए। हमारा और हमारे बच्चों का जीना उसरे दुश्वार कर रखा है।
-क्या हुआ?
-अब क्या बताएं? सभी बाल-बच्चों वाले हैं। हमारी भी मां-बहनें हैं। मुंह से कोई बोल-कुबोल कहते डर लग रहा है।
-आप लोगों को जो कहना है साफ-साफ कहिए।
-लाला जी, बात यह है कि परदे की ओट में तो सब कुछ चलता है पर खुल्लम-खुल्ला कुछ भी कोई बर्दाश्त नहीं करता। आंखों देखी मक्खी कोई नहीं निगलता।
-मैं आपसे विनती कर रहा हूं कि जो कहना है वह साफ-सफ कहें, पहेलियां न बुझाएं।
-अब आपसे क्या छिपाना? स्वर्णी पहले दर्शन के सहारे दिन काटती रही, अब उसके भतीजे मुंडू को पकड़ लिया है। यह ऐसी जादूगरनी है कि पिछले जमाने की कहानियों की तरह लोगों को तोते जैसा पालतू बनाकर अपने पिंजरे में बंद कर लेती है।
-हम आस-पड़ोस के घरों वाले इसकी लीलाएं देखते तंग आ चुक हैं। आप इसे निकाल बाहर करें, नहीं तो हम इसे बाहर निकाल देंगे। फिर न कहिएगा कि हवेली की शान पर धब्बा लग गया।
इस तरह मनुहार और चेतावनी के एक-साथ देते हुए वे लोग इसलिए धीरे-धीरे खिसक लिऐ क्योंकि तब तक खेतों से लौटने का स्वर्णी का वक्त हो गया था।
मैं अकेला नीम की झरती पत्तियों के नीचे बैठा रह गया था-क्या करूं, क्या न करूं की सोच में डूबा हुआ।
नीम की पत्तियां झर रही थीं-मैं थोड़ी धूप, थोड़ी छांव में बैठा सोच रहा था कि किस मुंह से स्वर्णी को घर छोडक़र जाने को कहूं? यह तो उसके अधपगले ही सही, पति का हक है। अपने बुजुर्ग समान नौकर को कुछ कहना मुनासिब नहीं था। एक तो बेटे के पागलपन से, उसकी अजीबो-गरीब हरकतों से वह पहले ही दु:खी था, ऊपर से उसके जीने का एक छोटा-सा सहारा कैसे छीन सकता था। फिर कहूं तो किससे कहूं? कैसे कहूं?
इसी सोच में घिरा बैठा था कि घास की गांठ सिर पर और बगल में बच्चे को उठाए स्वर्णी चली आई।
-लाला जी, कब आए आप?
-बस थोड़ी देर हुई?
-पानी लाऊं?
-नहीं। ऐसे ही ठीक है।
वह घास की गांठ खोलने में लग गई। मैं मन की गांठ खोलने लगा। कुछ तो कहना ही होगा। पानी सिर से गुजर जाने पर कहने का क्या फायदा?
-स्वर्णी। कुछ ढंग से रहा करो हवेली में।
-मैं बेढंगी कब से हो गई, लाला जी।
-मैं नहीं जानता पर लोग कहते हैं कि...
-हां, हां, कह दीजिए। चुप क्यों हो गए?
-कहते नहीं बनता।
-फिर सुन कैसे लेते हैं?
-सुनना तो पड़ता ही है।
-फिर कह भी दीजिए साफ-साफ।
-तुम्हारा मुंडू से क्या रिश्ता है-लोग यह जानना चाहते हैं?
-आप नहीं जानना चाहेंगे?
-मान लो मैं भी लोगों में शामिल हूं।
-फिर आपको यह भी पता होना चाहिए कि लोग मुझे स्वर्णी नहीं जादूगरनी मानते हैं।
यह कहकर वह फफक-फफक कर रो उठी। कहां छुपे थे उसके ये आंसू? मैंने कभी पहले दर्शन की मौत पर उसके आंसू देखे थे।
-लाला जी। मैं एक गरीब की गोरी-चिट्टी बेटी हूं। कंवारी थी तो पराए खेतों में घास खोदने जाती थी। जमींदारों के लडक़ों की घूरती निगाहों का शिकार हुई। बदनामी से बचने के लिए जौड़े से बांध दी गई। आंख बंद कर कुएं में धक्का दे दिया मेरे निर्दयी बाप ने।
-फिर।
-आपसे अगली सारी कहानी छिपी नहीं है। क्या था जौड़े में? मैं पढ़ा-लिखा वर चाहती थी। जौड़े के मामा के लडक़े को देखा तो रहा नहीं गया। उसके लिए जौड़े को छोडऩे को तैयार थी मैं। वही भाग निकला पल्ला छुड़ाकर। मन मारकर जौड़े के पास लौट आई।
-आगे क्या हुआ?
दर्शन और मेरी उम्र का कोई मेल नहीं था। जौड़ा पगला चुका था जो कुछ ‘मरजाद’ बची थी, वह इसी हवेली की दहलीज में माथा टिकाए रखने में बच सकती थी। हवेली के अंदर तो एक भेडिय़ा था और बाहर? बाहर के भेडिय़ों से बचपन से वाकिफ हो चुकी थी। औरत को न ढंग का पति मिले, न घर-बार, न पहनने-ओढऩे को कपड़ा और न ढंग का खाना तो वह क्या करे? वह स्वर्णी नहीं रह जाती, वह जादूगरनी बन जाती है।
फिर वह रोती चली गई... जैसे बहुत समय से उसका दिल किसी पत्थर के बोझ से रुका हुआ हो और अचानक पत्थर के हट जाने से वह अपने-आपको हल्का महसूस कर रही हो।
फिर उसने आंसू पोंछे और कहने लगी-लाला जी। आप ही कहिए जौड़े के साथ यह पहाड़ जैसी जिंदगी काटी जा सकती है? पशुओं को भी दो दिन घास न मिले तो रस्सी तुड़ाकर भाग निकलते हैं। अब मुंडू मेरे दु:ख दर्द को समझता है...
-फिर जौड़े को छोड़ क्यों नहीं देती?
-हवेली की छत सिर पर चाहिए लाला जी। अभी मुंडू का कोई काम धाम नहीं है। ड्राइवरी सीख रहा है, बस, पांव पर खड़ा होते ही आपकी हवेली भी छोड़ दूंगी।
अब उसकी आंखों में आंसू थम चुके थे बल्कि उन आंखों में भविष्य के सपने दिखाई दे रहे थे।
-फिर मुंडू को छोड़ तो नहीं दोगी?
-औरत एक बेल होती है, लाला जी। जो मजबूत तने वाले पेड़ से सहारा पाते ही उससे लिपट जाती है। उसकी मजबूरी, उसके हालात उसे जादूगरनी बनाते हैं, और...
-और क्या स्वर्णी? और क्या?
-और कोई जादूगर उसे अपने बस में करके फिर से औरत बना देता है।
वह आंखों को तिरछा कर ‘फिस्स’ करके हंसी, फिर घूंघट ओढ़ काम में लग गई।