मेरी यादों में जालंधर- भाग पंद्रह

थियेटर की दुनिया के खुबसूरत मोड़ ! 

मेरी यादों में जालंधर- भाग पंद्रह

- कमलेश भारतीय
हाँ, तो मैं कल बात कर रहा था, जालंधर के थियेटर, रंगकर्म और‌ रंगकर्मियों के बारे में ! गुरुशरण भाजी के साथ लम्बा साथ रहा और‌ बहुत सी बातें हैं, यादें हैं! वे वामपंथियों को झिंझोड़ते कहते थे कि एक कामरेड हर बात पे कहता है कि आपको पता नहीं कि हम लोगों के बीच में से आये हैं ! इस पर भाजी का जवाब बड़ा मज़ेदार और चुटीला था- कामरेड! यही तो दुख है कि आप लोगों में से निकल आये हो और अब आप इनकी नब्ज़ नहीं समझ पा रहे  ! फिर‌ वे युवाओं को कहते कि गाने के बोल हैं कि 
पिच्छे पिच्छे आईं 
मेरी तोर बेहदां आईं
इत्थे नीं मेरा लौंग गवाचा! 
बताओ भई ! युवा पीढ़ी का यही काम रह गया कि मुटियारों की नाक का कोका ही खोजते ज़िंदगी बिता दें? हमारे संपादक श्री विजय सहगल को भी गुरुशरण पाजी से दोस्ती का पता था। एक बार वे दिल्ली से अकादमी पुरस्कार लेकर देर शाम लौटे उस दिन मेरी नाइट ड्यूटी थी! अचानक रात के ग्यारह बजे सहगल जी का फोन आया कि आपकी दोस्ती आज आजमानी है कि इसी समय उनका फोन पर इंटरव्यू लो! उसी समय फोन लगाया और उनकी पत्नी ने उठाया और बोलीं कि वे तो थक कर सो गये हैं, मैंने कहा कि किसी भी तरह उनको जगा दीजिए ! भाजी आंखें मलते उठे होंगे पर मुझे अपने पुरस्कार पर इंटरव्यू दे दिया ! ज़रा बुरा नही माना ! वे ' समता प्रकाशन" भी चलाते थे और  हर नाटक के बाद वे अपने प्रकाशन की पुस्तकें लहरा कर कहते कि ये पुस्तकें लीजिए ! बहुत कम कीमत और‌ बहुत ही गहरी किताबें ! यह बात मैंने भाजी से सीखी कि किताब आम आदमी तक कैसे बिना किसी संकोच के लागत मूल्य पर पहुँचाई जा सकती है और मैं अपनी किताबें आज भी सीधे मित्रों तक पहुंचा कर लागत मूल्य मांगने से कोई संकोच महसूस नहीं करता ! इसके गवाह मेरे अनेक मित्र हैं ! 
खैर! भाजी के किस्से अनंत और‌ उनकी गाथा अनंत! अफसोस! एक बार जब वे अपनी टीम के साथ कहीं से नाटक मंचन कर देर रात लौट रहे थे, तब उनकी बैन किसी जगह उल्ट गयी और‌ वे घायल हो गये । हालांकि पाजी ने हिम्मत न हारी, फिर भी वे फिर‌ लम्बे समय तक नहीं रहे हमारे बीच ! इस तरह हमारे पास उनकी यादें ही यादें रह गयीं पर उनका थियेटर के लिए जुनून एक मिसाल है आज तक ! 
अमृतसर से ही थियेटर करने मेंं नाम कमाने वाले दो और रंगकर्मी हैं,  जिनसे मेरी थोड़ी थोड़ी मुलकातेंं हैं । ‌पहले केवल धालीवाल, जिनसे मेरी एक ही मुलाकात है और वह है प्रसिद्ध लेखक स्वदेश दीपक के घर‌ अम्बाला छावनी में ! तब मैं स्वदेश दीपक का इंटरव्यू लेने गया था और‌ केवल धालीवाल 'कोर्ट मार्शल' को पंजाबी में मंचित करने की अनुमति लेने पहुंचे हुए थे ! पाजी के बाद केवल धालीवाल ने भी खूब काम किया और नाटक को ऊंची पायदान पर पहुंचाने में योगदान दिया ! अमृतसर से ही नीलम मान सिंह भी आईं थियेटर में ! वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के थियेटर विभाग की अध्यक्ष भी रहीं और‌ 'कंपनी' नाम से अपना थियेटर ग्रुप भी बनाया, उन्होंने विदेशों तक पंजाबी थियेटर को पहुंचाया ! उन्होंने राॅक गार्डन में भी धियेटर किया ! 
बरसों बाद अचानक एक अस्पताल से बाहर आते मैंने इन्हें इनकी चमकतीं आंखों के चलते पहचाना ! मेरा छोटा भाई तरसेम वहां एक्सीडेंट के बाद दाखिल‌ था और‌ मैं उसकी कुशल मंगल पूछने आया था ! अचानक वे दिखीं और‌ मैं इनकी कार तक गया और मेरे मुंह से नीलम मान सिंह की बजाय सोनल मान सिंह निकल गया और वे नाराज़ होकर बोलीं-नो और कार स्टार्ट की लेकिन शायद उन्हें भी कुछ याद आई और वे कार से उतर कर आईं और‌ बोलीं - आई एम नीलम मान सिंह! पर आपने क्यों पूछा? मैंने "क़पनी' का जिक्र करते बताया कि मैं उन दिनों आपके परिचय में आया था जिन दिनों आप राॅक गार्डन में थियेटर का एक्सपेरिमेंट कर रही थीं ! उन्हें भी मेरी हल्की सी याद आई और पूछा कि आज यहा कैसे? मैंने कहा कि आप यह बात छोड़िये ! आजकल मैं हिसार‌ रहता हूँ और वहाँ एक सांध्य दैनिक में कलाकारों के इ़टरव्यू छापता हूँ। ‌आप अपना नम्बर दे दीजिए, किसी दिन फोन पर ही इंटरव्यू कर लूंगा ! आखिर एक दिन उनकी इ़टरव्यू हुई और‌ उन्होंने अपना थियेटर का सफर बताया ! उनकी हीरोइन जो मोहाली रहती थी, रमनदीप की याद दिलाई और बताया कि आजकल वह कोलकाता में रहती है और उसका इंटरव्यू भी कर चुका हूँ । यहीं मैंने एक बार पंजाब के प्रसिद्ध नाटक ' लोहा कुट्ट ' के रचनाकार बलवंत गार्गी से नवांशहर की कलाकार बीबा कुलवंत के साथ उनके सेक्टर 28 स्थित आवास पर मिला था! बीबा कुलवंत ने ही इस नाटक की हीरोइन का रोल‌ निभाया था, जिसे खटकड़ कलां में ही नहीं पंजाब भर में जसवंत खटकड़ ने पहुंचाया! मैंने बलवंत गार्गी से मज़ाक में कहा कि आप पंजाब में बस लोहा ही कूटते रहे और कूटते कूटते इसे स्टील बना दिया। वे बहुत हंसे और कहि कि एक पैग इसी बात पर‌! 
 ‌इस तरह मैं चंडीगढ़ में भी थियेटर के लोगों से मिलता रहा ! यहीं थियेटर विभाग में छात्र थे राजीव भाटिया और हिमाचल के धर्मशाला की वंदना, जो बाद में आपस में जीवन साथी बने और स़ंयोग देखिये कि जब हिसार ट्रांसफर हुई तब मैंने जो घर किराये पर  लिया वह राजीव भाटिया की गली में मिला ! इस तरह बरसों बाद देखा कि राजीव भाटिया हरियाणवी फिल्मों में योगदान दे रहे हैं और इसकी फिल्म - पगड़ी द ऑनर' को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला ! हालांकि राजीव भाटिया और‌ वंदना मुम्बई रहते हैं लेकिन जब जब हिसार आते हैं, तब तब खूब महफिल जमती है हमारी ! खैर! मित्रो! मैं कहां से कहां पहुंच गया । खाली और रिटायर आदमी के पास समय बिताने के लिए, सिवाय किस्सों के कुछ नहीं होता ! 
आज का किस्सा इतना ही, कल मिलते हैं! यह कहते हुए कि 
जो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर‌ भूलना अच्छा! 
आज की जय जय!