मेरी यादों में जालंधर - भाग अठारह डायरी में कितने नाम कट गये! 

मेरी यादों में जालंधर - भाग अठारह डायरी में कितने नाम कट गये! 

- कमलेश भारतीय
ये यादें भी क्या चीज़ हैं कि किधर से किधर ले जाती हैं, उंगली पकड़कर ! आज याद आ रहे हैं वे युवा महोत्सवों के दिन ! जिनके दो लोग बहुत याद आ रहे हैं ! पहले हैं अशोक प्लेटो  जो बहुत ही प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, कवि भी थे ! उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां आज तक नहीं भूलीं, वे सामने वाले का नाम लेकर कहते : 
कमलेश ! तुम भेड़ तो नहीं हो
फिर भीड़ में शामिल क्यों हो ? 
यानी वे सामने वाले को अलग हटकर अपनी हैसियत व जगह बनाने का आह्वान करते ! वे भाषण प्रतियोगिता में मेरे ध्यान में कभी प्रथम पुरस्कार से कम नहीं आते ! वे हिमाचल के कुछ महाविद्यालयों में प्राचार्य नियुक्त हुए लेकिन जालंधर उन्हें खींच कर  फिर ले आता और वे मोहन राकेश की तरह जैसे जेब में ही त्यागपत्र रखते थे ! आखिरकार वे पंजाब केसरी में उपसंपादक हो गये !  वे संस्कृत की विदुषी और डाॅ कैलाश भारद्वाज की पत्नी डाॅ सरला भारद्वाज के भाई थे । डाॅ सरला भारद्वाज को एक साल हिसार के ब्रहम विद्यालय की ओर से सम्मानित भी किया गया और वे सीधे हमारे ही घर आईं और इस तरह दोआबा की खुशबू जैसे मेरे घर आई, वही दोआबा, जिसकी मिट्टी से मैं बना हूँ ! आह! फिर अशोक प्लेटो न रहे ।  वे आपातकाल में दोस्तों से मज़ाक में कहते कि आपके घर चुपके से मार्क्स की किताब रख दूंगा और पुलिस को खबर कर दूंगा, फिर पकड़े जाओगे ! असल में वे अभिव्यक्ति के खतरों के प्रति अपनी आवाज को इस तरह पेश करते थे । 
दूसरी याद हैं रीटा शर्मा, जो बाद में रीटा शौकीन बनीं ! वे भी हमारे काॅलेज के दिनों में काव्य पाठ प्रतियोगिताओं में एक ही कविता पढ़तीं :
मैं, तुम, हम सब कोढ़ी हैं!
और काव्य पाठ में प्रथम पुरस्कार ले उड़तीं , हम दूसरे प्रतिभागी देखते ही रह जाते ! फिर‌ वे चंडीगढ़ आ गयीं और थियेटर में आईं और एक नाटक तैयार किया-गुडमैन दी लालटेन‌, जिसे भव्य स्तर पर पंजाब के अनेक शहरों में मंचित किया, इनमें हमारा नवांशहर भी एक रहा और यही हमारी अब तक की आखिरी मुलाकात रही! यह नाटक सतलुज सिनेमा में म़चित किया गया ! 
जीवन के लम्बे सफर में बहुत लोग छूट जाते हैं, जैसे गाड़ी के मुसाफिर अलग अलग स्टेशन पर उतर जाते हैं, वैसे ही कितने परिचित चेहरे हमारी नज़रों से ओझल हो जाते हैं । इस स्थिति को मैंने अपनी एक कविता- डायरी के पन्ने में व्यक्त करने की कोशिश की है। यह कविता 'पंजाबी ट्रिब्यून' के संपादक और प्रसिद्ध कवि हरभजन हल्वारवी के निधन की खबर पढ़ते ही लिखी गयी थी ! वे मुझे बहुत मानते थे और कई बार संपादक विजय सहगल के सामने कहते, सहगल जी, जी करता है कि कमलेश को मैं आपसे उधार मांगकर, ट्रांसफर करवा कर पंजाबी ट्रिब्यून में ले लूं‌! उन्होंने मुझसे पंजाबी में भी लिखवाया भी ! जब उनका निधन हुआ तब मैं हिसार में था और उन्हें याद कर एक कविता लिखी,  जो भास्कर की मधुरिमा में प्रकाशित हुई, जब मैंने दैनिक ट्रिब्यून छोड़ दिया था! कुछ अंशों के साथ आज समाप्त करता हूँ अपनी बात : 
:कभी ऐसा भी होता है /कि पता चलता है कि /लिखे नाम और पते वाला आदमी /इस दुनिया से विदा हो गया । /तब डायरी पर देर तक /देखता रह जाता हूं ,,,/सब याद आने लगता है /कब , कहां मिले थे /कितने हंसे और कितने रोये थे । /आंखें नम होने लगती हैं ,,,/बेशक नहीं जा पाता /उसकी अंतिम विदा बेला में /पर लगता है /जीवन का कुछ छूट गया /भीतर ही
भीतर कुछ टूट गया ।/कोई अपना चला गया ।/डायरी से नाम काटते वक्त 
बहुत अजीब लगता है ।
आज बस इतना ही! कल फिर कोशिश‌ रहेगी , कुछ नये  अलग लोगों को याद करने की!