मेरी यादों में जालंधर - भाग छब्बीस
दुख हो चाहे सुख हो, लिखना फिर भी
- कमलेश भारतीय
कल चलते चलते मैंने वादा किया था कि पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और प्रसिद्ध कथाकार डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता के बारे में बात करते वह सीख बताऊंगा, जो उनसे मिली।
सन् 1975 के मई माह की बात है। गर्मी जोरों पर थी। नवांशहर से आर के आर्य काॅलेज में मेरा जूनियर रहा और साहित्य की राह का हमराही मुकेश सेठी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से एम ए हिंदी करने आ गया, जिससे उसके हाॅस्टल में रहने का मेरा ठिकाना बन गया था । हालांकि मई में छुट्टियां होती हैं लेकिन मुकेश वहीं रहता, अपने परिवार के हालातों के चलते ! ऐसे ही उसके मन में आया कि डाॅ मेहंदीरत्ता से मिलने चलते हैं। जब हम उनके सेक्टर ग्यारह स्थित आवास पर पहुँचे, वे बिल्कुल सामने अपने स्टडी रूम में बैठे लिख पढ़ रहे थे। हमारे आने से जो कार्य कर रहे थे, उसे छोड़कर हमारा गर्मजोशी से स्वागत् किया।
चाय आ गयी और चाय की चुस्कियों के बीच सेठी ने कहा कि सर ! हमारा नवांशहर बहुत छोटा है, हमें तो वहाँ अच्छी साहित्यिक पत्रिकायें भी नहीं मिलतीं! क्या करें?
डाॅ मेहंदीरत्ता का जवाब बहुत शानदार था - शहर छोटा है तो आप इतने बड़े बन जाओ कि लोग आपके नाम से शहर को जानने लगें ! क्या बात कही !
फिर सेठी ने जिज्ञासु की तरह पूछा कि हमारे पास लिखने का समय भी कम है । पढ़ाई करें या साहित्य लेखन?
इसका जवाब और भी बढ़िया आया, जो ऐसी सीख बन गया जो आजतक काम आ रही है।
डाॅ मेहंदीरत्ता ने कहा कि मेरे या आपके या हर किसी के पास जीवन में सिर्फ चौबीस घंटे ही होते हैं, पच्चीसघंटे किसी के पास नहीं ! इन चौबीस घंटों की मैनेजमेंट ही सफलता या विफलता का आधार है। हर कोई कुछ न कुछ काम करता है, जैसे मै पढ़ाता हूँ और आप पढ़ते हो, हमारे दिन का एक बड़ा हिस्सा इस काम में निकल जाता है । फिर हम सोते भी हैं, एक हिस्सा इसमें भी गुजर जाता है । अब बाकी बचे कुछ घंटों का हम कैसे सदुपयोग करते हैं, यही हमारी मैनेजमेंट काम आती है । दूसरी बात कि हर हाल में लिखना, सुख हो, चाहे दुख ! लिखना फिर भी....
यह सीख आज तक काम आ रही है । मैं चाहे अपनी बड़ी बेटी रश्मि के लिए पीजीआई, रोहतक में रहा या फिर छोटी बेटी प्राची के लिए कई दिनों तक पीजीआई, चंडीगढ़ रहा, साहित्य ही लिखता या पढ़ता रहा, इस मंत्र से सारा दुख भूलता रहा । मैं हैरान तब हुआ जब पीजीआई, चंडीगढ़ में बेटी को दवाइयाँ बगैरह देने या उसके टैस्टों की रिपोर्ट लाने के बाद मैं अपने झोले में से पैड निकाल कर तीन कहानियाँ लिख गया उन दिनों ! यह कैसा मंत्र था या कैसे ग्रहण किया होगा?
मैं तो इस स्थिति में यही कहता हूँ या समझ पाया हूँ कि दुख के दिनों में साहित्य मेरे बड़े काम आया ! सारे दुख भूलता रहा, साहित्य पढ़ता या लिखता रहा ! दुख मेरे पास से चुपचाप गुजरता रहा ! खुद भी जब लम्बे समय अस्पताल में भर्ती रहा, चाहता रहा कि कुछ लिख सकूं लेकिन हाथ पर लगा कैनुला बाधा बना रहा, आखिर ठीक होते ही लिखना शुरू किया, तब मेरे मन को करार आया!
मैं डाॅ मेहंदीरत्ता को एक बात कहता था कि आपका छात्र कभी न रहा, कोई क्लास भी नहीं लगाई लेकिन आपने जो मंत्र दिया, उसके चलते मैं आपका आजीवन शिष्य हूँ। वे मुस्करा देते!
यह साथ सन् 1975 से लेकर अंतिम समय पिछले वर्ष 29 मई तक बना रहा ! जब अतुलवीर अरोड़ा ने दुखद सूचना दी कि डाॅ मेहंदीरत्ता नहीं रहे ! मैं चंडीगढ़ गया और आखिरी बार नमन् किया लेकिन यह सीख, यह गुरुमंत्र काम आता रहा है और आता रहेगा- चाहे सुख हो, चाहे दुख, लिखना फिर भी!