मेरी यादों में जालंधर- भाग अट्ठाइस
राहों पे नज़र रखना और होंठों पे दुआ...
-कमलेश भारतीय
समय के साथ साथ कैसे व्यक्ति ऊपर की सीढ़ियां चढ़ता है, यह देखना समझना हो तो आजकल 'जनसत्ता' के संपादक मुकेश भारद्वाज को देखिए !
मुकेश भारद्वाज को याद करते हुए विनम्रता से यह बताना बहुत जरूरी समझता हूँ कि यह उन दिनों की बात है जब मैंने बीएड की परीक्षा पास की ही थी । नवांशहर के मेरे बीएड काॅलेज की प्राध्यापिका व मेरी बहन डाॅ देवेच्छा ने मुझे काव्य पाठ प्रतियोगिता का पहली बार निर्णायक बनाया । परिणाम घोषित किया तो एक लम्बा सा , पतला सा लड़का हम निर्णायकों के पास आया और विनम्रता से द्वितीय पुरस्कार दिए जाने का आभार व्यक्त करने लगा । वह होशियारपुर से आया था । वह मुकेश भारद्वाज था जो आज 'दैनिक जनसत्ता' का दिल्ली में संपादक है ।
मुकेश ने कहा कि कोई राह सुझा दीजिए । मैं तब तक अध्यापन के साथ 'दैनिक ट्रिब्यून' का नवांशहर क्षेत्र में आंशिक रिपोर्टर हो चुका था और मुझे अध्यापन से ज्यादा पत्रकारिता में मज़ा और रोमांच आने लगा था । मैंने उसे पत्रकारिता की जितनी मेरी समझ बनी थी उसकी जानकारी दी और होशियारपुर चूंकि मेरा ननिहाल था , इसलिए लकड़ी के खिलौनों पर फीचर लिखने का सुझाव दिया । मुकेश ने लिखा और 'दैनिक ट्रिब्यून' में भेजा , जिसे तब रविवारीय संस्करण के प्रभारी और सहायक संपादक वेदप्रकाश बंसल ने प्रकाशित भी कर दिया । इसके बाद मुकेश भारद्वाज के भारद्वाज के अनेक फीचर 'दैनिक ट्रिब्यून' में आए । एक बार मैं चिंतपुर्णी (हिमाचल)जाते समय सपरिवार मुकेश का पता खोजते मिलने पहुंच गया और उसके परिवार से मिला । बहन कैलाश भी अब चंडीगढ़ में रहती है । इसके बाद मुकेश सन् 1987 में 'जनसत्ता' में टेस्ट दिया और रिपोर्टर चुना गया ।
समय का कमाल देखिए कि सन् 1990 में मैं भी शिक्षण को अलविदा कह 'दैनिक ट्रिब्यून' में उपसंपादक बन कर चंडीगढ़ पहुंच गया । 'जनसत्ता' कार्यालय में मुकेश से मिलने गया । कैंटीन में भीड़ होने के कारण हमने चाय की चुस्कियां सीढ़ियों पर बैठ कर लीं और खूब बतियाए ।
मैं सन् 1997 में हिसार का रिपोर्टर बन कर हरियाणा आ गया तब से मुलाकात नहीं हुई लेकिन सम्पर्क बना रहा ।
एक दिन हिसार के 'नभछोर' के संपादक ऋषि सैनी ने कहा कि मैं 'जनसत्ता' के संपादक मुकेश भारद्वाज को फोन लगाता हूं लेकिन सम्पर्क नहीं होता , बात करने की इच्छा है । असल में वे 'जनसत्ता' के फैन हैं और प्रभाष जोशी को भी खूब पढ़ते रहे थे । मैंने कहा कि लीजिए बात करवा देता हूँ ।
मैंने तुरंत मुकेश को फोन लगा दिया । उसने बड़े आदर से 'सर' कह कर संबोधित किया और मैंने ऋषि सैनी से बात करने को कहा । जब दोनों की बात खत्म हुई तब मुकेश ने कहा कि सर को फोन दीजिए । उसने बड़े आग्रह से कहा कि आप तो पंजाब के कथाकार हो । 'जनसत्ता' के लिए कहानी भेजिए । मैंने दूसरे दिन ही कहानी भेज दी और उसी आने वाले रविवारी जनसत्ता में प्रकाशित भी हो गयी । यह उसका मेरे प्रति आदर था या कृतज्ञता या गुरु दक्षिणा, कह नहीं सकता । फिर और कहानियां भी भेजीं जो प्रकाशित होती गयीं । 'नानी की कहानी', 'चरित्र' आदि कहानियाँ प्रकाशित हुईं ।
फिर 'जनसत्ता' के गरिमामयी दीपावली विशेषांक में भी मेरी कहानी आई -नीले घोड़े वाले सवार । फिर 'दुनिया मेरे आगे' में भी लेख भी आये ।
इन दिनों मुकेश हर शनिवार 'जनसत्ता' में अपना साप्ताहिक स्तम्भ-बेबाक बोल लिख रहा है जो खूब चर्चित भी है और पसंद भी किया जा रहा है । लगे रहो । बस, कलम पैनी रखना ।
मुकेश भारद्वाज पंजाबी कवियों के अंशों को भी अपने स्तम्भ में बड़ी सही जगह उपयोग करता है, जो यह बता देता है कि मुकेश एक कवि /लेखक भी है और पंजाबी साहित्य से भी जुड़ा है ।
आज सुबह वैसे ही मन आया कि रास्ता तो एक शिक्षक पूरी क्लास को दिखाता है लेकिन कोई कोई मुकेश भारद्वाज जैसा प्रतिभावान अपनी मंजिल खुद बना और पा लेता है । बधाई मुकेश । इसमें तुम्हारी मेहनत ज्यादा झलकती है।
यह चंडीगढ़ ही था जहाँ मुझे डाॅ योजना रावत, बृज मानसी से मिलने का अवसर मिला। ये दोनों 'जनसत्ता' में काॅलम लिखती थीं। बृज मानसी पंजाब विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में मिलती और हिमाचल से आई थी एम ए अंग्रेज़ी करने ! उसने एक बार 'दैनिक ट्रिब्यून' में समीक्षा स्तम्भ में जुड़ने की इच्छा जाहिर की और मैंने संपादक विजय सहगल से मिलवाया और उसकी यह इच्छा भी पूरी है गयी। फिर वह अमेरिका चली गयी और संबंध वहीं छूट गया। योजना रावत के कथा संग्रह के विमोचन पर भी मौजूद रहा और कहानी भी प्रकाशित की - 'कथा समय' में ! राजी सेठ और निर्मला जैन विशेष तौर पर आमंत्रित थीं ।
चंडीगढ़ में ही वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र भारद्वाज का इंटरव्यू लेने तब भेजा गया जब वे हिंदुस्तान से सेवानिवृत्त होकर अपने पैतृक गांव बद्दी बरोटीवाला जा रहे थे और सामान पैक हो रहा था । वे समाजसेवा में जाना चाहते थे लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें यह अवसर न दिया । वैसे वे मेरी साहित्यिक यात्रा के पहले संपादक रहे । वे जालंधर से प्रकाशित 'जन प्रदीप ' के संपादक थे और मेरी पहली पहली रचनाएँ इसी में प्रकाशित हुई और मैं कभी कभी भगत सिंह चौक के सामने बने कार्यालय में भी जाता । वहीं अनिल कपिला से पहली मुलाकात हुई, जो बरसों बाद 'दैनिक ट्रिब्यून' में फिर जुड़ गयी ! 'जन प्रदीप' में साहित्य संपादक थे पूर्णेंदू ! वे हर माह किसी न किसी शहर में काव्य गोष्ठी रखते और एक बार लुधियाना में काव्य गोष्ठी रखी साइकिल कंपनी के मालिक मुंजाल की कोठी में, ये वही मुंजाल फेमिली है, जो आजकल हीरो हांडा के लिए जानी जाती है ! वैसे यह भी बताना कम रोचक नही होगा कि ज्ञानेंद्र भारद्वाज की बेटी सुहासिनी 'नभ छोर' द्वारा प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक ' होम पेजिज' में रिपोर्टर बन कर हिसार आई और कुछ कवरेज के दौरान मुलाकातें होती रहीं । भारद्वाज की बड़ी बेटी मनीषा प्रियंवदा से भी जब हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना तब मुलाकात हुई और वह हमारे मित्र हरबंश दुआ की पत्नी है, जो खुद एक अच्छे लेखक हैं और उनकी किताबें आधार प्रकाशन से आई हैं। वैसे वे बहुत ही क्रियेटिव शख्स हैं और मोहाली में उनका ऐसा शानदार शो रूम भी देखने को मिला! उन्होंने ही बताया कि सुहासिनी आजकल विदेश में है ! ज्ञानेंद्र भारद्वाज की वही इंटरव्यू मेरी पुस्तक ' यादों की धरोहर, में भी शामिल है।
मित्रो फिर वही बात कि मैं कहाँ से कहां पहुंच गया ! इन पंक्तियों से आज विदा लेता हूँ :
होंठों पे दुआ रखना, राहों पे नज़र रखना
आ जाये कोई शायद दरवाजा खुला रखना!