मेरी यादों में जालंधर -भाग इकतीस
भगत सिंह और पाश से जुड़ने के दिन
- कमलेश भारतीय
चंडीगढ़ के मित्रों के नाम या उनका काम, स्वभाव बताते संकोच नहीं हुआ । इतने दिन में दो बार बड़े भाई जैसे मित्र फूल चंद मानव का कहीं कहीं थोड़ा सा जिक्र जरूर आया। आज चलता हूँ उनकी ओर ! फूल चंद मानव नाभा से संबंध रखते हैं और नाभा एक ही बार देखा जब इनकी शादी में एक बाराती बन कर वहाँ से दिल्ली गया था । कब और कैसे परिचय हुआ, यह तो अब ठीक ठीक सा याद नही आ रहा पर ये उन दिनों पंजाब के सूचना व सम्पर्क विभाग में कार्यरत थे । सेक्टर सताइस में आवास मिला हुआ था । इनका छोटा भाई रमेश और मां भी इनके साथ रहते थे । लेखन का जोश, ज़ज्बा और सरकारी नौकरी । फिर वे उन दिनों मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह के पीआरओ भी बने, जिसका नशा आज भी इनकी बातों में झलक जाता है । समझिये कि पत्रकारिता का अनुभव भी यहीं हो गया ! फिर इन्हें पंजाब की हिंदी पत्रिका ' जागृति' के संपादन का सुनहरी अवसर भी मिला, जिस पर मानव अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे । उन दिनों मुझे मानव ने प्रसिद्ध व्यंग्यकार व पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान, बलवंत रावत, बलराज जोशी और एक बार दिल्ली से आईं लेखिका देवकी अग्रवाल आदि कितने ही रचनाकारों से परिचय का अवसर दिया । बलवंत रावत डाॅ योजना रावत के पिता हैं जबकि बलराज जोशी कार्टूनिस्ट संदीप जोशी के पिता थे । इस तरह ये फूल चंद मानव का ही कमाल था कि एक ही परिवार की दो दो पीढ़ियों के सदस्यों से मिलने का अवसर बना दिया।
मुख्य तौर पर आज फूल चंद मानव को एक शानदार अनुवादक व कवि के रूप में जाना जाता है जबकि सबसे पहले इनका कहानी के प्रति जुनून था और इनकी कहानी ' अंजीर' उन दिनों ' "धर्मयुग'में प्रकाशित हुई थी और इसी शीर्षक से इनका कथा संग्रह भी आया था। इसी कथा संग्रह की समीक्षा लिखने का अवसर देकर मानव ने मुझ अनाड़ी खिलाड़ी को समीक्षा क्षेत्र में उतार दिया यानी यह रूप मिला 'अंजीर' से, जिसका क, ख, ग भी मैं नहीं जानता था । जाहिर है कि यह समीक्षा जागृति में आई ।
जब मैं बीए प्रधम वर्ष का छात्र था नवांशहर के आर के आर्य काॅलेज में, तब हमारे हिंदी प्राध्यापक डाॅ महेंद्र नाथ शास्त्री के स़पादन में मैंने सन् 1970 में लघु पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया तो फूल चंद मानव और मैं संपादन सहयोगी बन गये। यह वही पत्रिका है, जिसके पहले अंक में मेरी पहली लघुकथा आई और दूसरा ही अंक लघुकथा विशेषांक रहा, जो हिंदी के पहले पहले लघुकथा विशेषांकों में एक है और वह भी पंजाब जैसे अहिंदी भाषी क्षेत्र से, इसलिए इसकी चर्चा उन दिनों 'सारिका' के नयी पत्रिकाओं काॅलम में भी हुई !
उन दिनों पंजाब में नक्सलवादी आंदोलन चल रहा था, जिसके मुख्य केन्द्र खटकड़ कलां व निकटवर्ती गांव मंगूवाल ही थे और मेरी अनियतकालीन पत्रिका 'प्रयास' भी सीआईडी के निशाने पर आ गयी ! यह बात मुझे खुद सीआईडी के उस इ़ंस्पेक्टर ने बताई, जिसकी ड्यूटी मेरी डाक से आई चिट्ठियों को गुप्त रूप से पढ़ने की एक माह तक लगाई गयी थी । मैं खुद डाकखाने में अपनी डाक लेने जाता था तो एक दिन हमारे इलाके के डाकिए रामकिशन ने कहा कि एक इंस्पेक्टर तुमसे मिलना चाहता है । वह मुझे इंस्पेक्टर के पास ले गया और इंस्पेक्टर मुझे देखता ही रह गया ! फिर बोला कि आप मुझे जानते नहीं बेटे लेकिन मुझे बताना नहीं चाहिए था फिर भी तुम्हारी उम्र देखकर बताना पड़रहा है कि मैं सीआईडी इंस्पेक्टर हूं और एक महीने तक तुम्हारी डाक सेंसर करने का आदेश था । मैं पहले आप की डाक देखता था और बाद में वैसी की वैसी पैक कर आपको मिलती थी ।
- ऐसा क्यों?
- आप नही जानते कि अनियतकालीन पत्रिकाओं का प्रकाशन मुख्य तौर पर आजकल नक्सलवादी विचारधारा के लोग करते हैं लेकिन एक माह तक सेंसर किये जाने के बावजूद आपके खिलाफ कोई ऐसा सबूत नहीं मिला जो रिपोर्ट मैं देने जा रहा हूँ लेकिन आपकी छोटी उम्र देखकर सलाह देता हूं कि यदि पत्रिका निकालनी ही है तो इसे रजिस्टर्ड करवा लो।
- कैसे करवाते हैं?
- जालंधर जाओ और डी सी ऑफिस में रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर के ऑफिस में फाॅर्म भर आओ ! इस तरह मैंने फाॅर्म भरा जालंधर जाकर और अनियतकालीन पत्रिका 'प्रयास' से 'प्रस्तुत' बन गयी! ऐसे सरकार की नज़र में चढ़ने से पहले पहले उस इंस्पेक्टर ने मुझे अपने बेटे की तरह सही राह बता दी । जिन दिनों मैं एम ए, बीएड कर खटकड़ कलां यानी शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव में गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक और बाद में कार्यकारी प्रिंसिपल बना, उन दिनों खटकड़ कलां व मंगूवाल के दर्शन खटकड़ व इनके छोटे भाई जसवंत खटकड़ , छात्र नेता परमजीत पम्मी व पुनीत सहगल आदि से स्कूल में इनसे परिचय हुआ और इनके नाटक लोहा कुट्ट ( बलवंत गार्गी) को देखने का अवसर अनेक बार मिला और यही खटकड़ कलां में मुझे शहीद भगत सिंह के सारे परिवारजनों से मिलने का अवसर मिला जिसके आधार पर मैंने तेइस पेज लम्बा आलेख लिखा - भगत सिंह के पुरखों का गांव ! इसे तब सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक ' धर्मयुग' ने प्रमुख तौर पर प्रकाशित किया, जिसके चलते 'दैनिक ट्रिब्यून' के उस समय समाचार संपादक सत्यानंद शाकिर ने मेरी पीठ थपथपाई थी और सहायक संपादक विजय सहगल ने कहा था कि तुमने तो भगत सिंह पर रिसर्च ही कर डाली ! यह भी बता दूँ कि मेरे आलेख वाली प्रतियां राज्यसभा में लहराई गयी थीं, जिसके बाद ही खटकड़ कलां में शहीद भगत सिंह स्मारक बनाने का ख्याल सरकार को आया और भगत सिंह को सही श्रद्धांजलि!! यह मेरा कलम का कमाल ही रहा।
खैर , वापस फूल चंद मानव की ओर आता हूँ। मानव बठिंडा में हिंदी लैक्चरर बन कर चले गये और कुछ वर्ष तक हमारा सम्पर्क टूटा रहा !
इधर मैं खटकड़ कलां से जुड़ता गया वामपंथी नाटककार भाजी गुरशरण सिंह से, क्रांतिकारी कवि पाश, दर्शन खटकड़, हरभजन हल्वारवी से ही नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह से, जो उन दिनों 'भगत सिंह व उनके साथियों के दस्तावेज' पुस्तक डाॅ चमन लाल के सहयोग से तैयार कर रहे थे, कुछ कुछ मेरा भी सहयोग रहा इसमें ! पाश की कविताओं ने सबको अचंभित कर दिया और
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
जो आज बहुचर्चित और बहुपठित कविता है ! पाश से तीन चार मिलना भी हुआ, इन्हीं दिनों ! मैंने 'धर्मयुग' वाले आलेख में लिखा था कि यदि कुरूक्षेत्र की धरती आज भी लाल पाई जाती है तो भगत सिंह के गांव की माटी भी आज तक लाल ही है ! यह विचार की धरती है, क्रांति की धरती है और मै इस रंग में रंगता चला गया ! प्रिंसिपल के साथ एक ऐसा रिपोर्टर जिससे 'धर्मयुग' ने लगातार तीन वर्ष भगत सिंह के शहीदी दिवस मेले की कवरेज करवाई ! फिर पाश विदेश चला गया लेकिन एक वर्ष वह भारत लौटा और शहीदी दिवस पर खटकड़ कलां भगत सिंह को नमन् करने आया और निकटवर्ती गांव काहमा गांव में वह उग्रवादियों की गोलियों का शिकार बना । एक ही दिन भगत सिंह और पाश का बन गया ! तब तक मैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक मंडल का हिस्सा बन चुका था और वही बात अपने प्रिय कवि पाश के बारे में लिखने का जिम्मा मुझे ही सौ़प दिया विजय सहगल ने , मेरे अतीत को जानते हुए । पाश के तीनों काव्य संग्रह खरीद कर लाया और उसकी मुलाकातों में खोये लिखा ! एक कविता जिसे मैं आज भी अपनी बेटी रश्मि को सुनाया करता हूँ, इसका अंश है :
इह चिड़ियां दा चम्बा
इहने किते नहीं जाना !
इहने ब्याह तों बाद
इक खेत तों उठके
बस दूजे पिंड दे खेत विच
उही घाह कटना!
इह चिड़ियां दा चम्बा
किते नईं जाना!
आज शहीद भगत सिंह और पाश की यादों में खो गया, फूल चंद मानव की बाकी कहानी फिर सही !