न घर है, न ठिकाना, बस चलते जाना
प्रवासी मजदूरों का दर्द ब्यान कर रहे हैं पत्रकार कमलेश भारतीय
समाचारपत्रों में जो प्रवासी मजदूरों पर आ रहा है, उसे देखकर विचलित होना बहुत स्वाभाविक है। प्रवासी मजदूरों पर भूख की मार कोरोना से ज्यादा पड़ी है। कोरोना तो इनको छू भी न सका। भूख और प्रवास का बड़ा साथ है। शायद एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते। भूख के कारण ही तो प्रवास है। अपनी मां जैसी मिट्टी, गांव और देस छोडकर भूख का जुगाड़ करने निकल पड़ने वाला ही तो प्रवासी कहलाता है। घर, गांव और अपनों से मीलों दूर। बस। फोन पर मां के बोल सुन कर जी लेता है प्रवासी मजदूर। सारी खुशियां अपने तक ही सिमट रहती हैं तो सारे दुख भी अकेले ही झेलने पड़ते हैं। अब जब कोरोना ने मार मारी और रोज़ी रोटी के लाले पड़ गये तब अपना गांव, अपनी माटी और,अपने लोग बहुत याद आए। बसें और रेल सब बंद। फिर क्या करें? नदी नाले तक रोक नहीं पाए इनको। पैदल ही हजारों किलोमीटर की यात्रा पर निकल पड़े प्रवासी मजदूर और सहज ही उनके फोटोज देखकर इस गाने की पंक्तियां याद आईं:
न घर है, न ठिकाना
मुझे चलते जाना है ...
चलते जा रहे हैं। सरकारें कह रही हैं कि मत जाओ। आपके लिए खाना है या नहीं रुकते तो जाने के लिए रेलें चला रहे हैं। पर नम्बर तो नहीं पड़ता। रजिस्ट्रेशन करवाने के फाॅर्म भरने के भी ब्लैक में पैसे मांग रहे हैं -दो दो, तीन तीन सौ रुपये तक। अब कहां जाये प्रवासी मजदूर? कौन इन ब्लैकमेलरों को पकड़े? सडकों पर अपना घर का जरूरी सामान उठाये गर्भवती महिलाएं चल रही हैं अनजाने भविष्य की खोज में। वह सफर जो पता नहीं कहां जाकर खत्म होगा। होगा भी या नहीं? राह में भी तो दम कहां टूट जाए? कोई रेलगाड़ी ऊपर से गुजर जाए? कहीं कोई वाहन कुचल जाए? क्या ठिकाना?
न घर है, न ठिकाना
बस, चलते जाना है ...
कोई राहत इनके लिए बीस लाख करोड़ में है या नहीं? या फिर बड़े छोटे कारोबारियों की ही चिंता है?