संस्मरण/ तुम्हें याद हो कि न याद हो
शिमला की एक याद है। पिछले वर्ष दिसंबर के आखिरी दिन एक साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित था । कार शिमला लोकल बस स्टैंड पर छोड तिब्बती मार्केट की सीढ़ियां चढ़ते पत्नी जल्दी थक गयी। सांस फूलने लगी। तब मैंने कहा कि थोड़ा आराम कर लो। कहीं बैठ कर चाय पीते हैं।
चाय की दुकान से पहले मूंगफली की ओर नज़र गयी। मूंगफली भी खरीद ली और लिफाफा लेकर चाय की दुकान पर जा बैठे। चाय का कह कर मूंगफली फांकने लगे। ध्यान दिया नहीं । छिलके गिराते गये । चाय पीकर पैसे दिए । दुकानदार ने पैसे लेने के बाद झाडू उठाई और सफाई करते कहने लगा- सोचा था , बाबू जी पढ़े लिखे हैं । क्या कहूं ? आपने मूंगफली के छिलके गिराते ज़रा नहीं देखा । अब मुझे दोबारा सफाई करनी पड़ेगी , नहीं तो कोई और ग्राहक कैसे आएगा ?
मुझे काटो तो खून नहीं । मैंने माफी मांगी और एक छोटे से दुकानदार से बड़ी सीख लेकर चल पड़ा ।
-कमलेश भारतीय