मजदूर दिवस पर चिंता प्रवासी मजदूरों की
पत्रकार कमलेश भारतीय की कलम से मजदूर दिवस पर लिखा गया विशेष लेख
विश्व भर में मनाया जायेगा आज फिर मजदूर दिवस । हर इमारत की नींव और शिखर पर मजदूर का ही पसीना मिला मिलेगा । सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की इलाहाबाद की सडकों पर वह तोड़ती पत्थर किसे याद नहीं होगी ।वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर । आज किसी भी शहर में आप महिला मजदूरों को पत्थर तोड़तीं देख सकते हो । हिसार की चिलचिलाती गर्मी में या कंपकंपाती सर्दी में वह तोड़ती पत्थर और हम चुपचाप निकल जाते हैं मुंह फेर कर कि ये जीवन है और सबकी अपनी किस्मत । इन दिनों कोरोना के भयावह संकट के बीच अगर कोई सबसे ज्यादा पिसा है तो वह है प्रवासी मजदूर । न रोज़ी , न रोटी । न रहने का ठिकाना । बस । चलते जाना है । मीलों मील । अपने गांव की ओर । चाहे राह में कोरोना से पहले भूख ही क्यों मार डाले । ज़रा सा कोई कह देता है कि रेल चलने वाली है कि बांद्रा रेलवे स्टेशन पर हजारों मजदूर आ जाते हैं । कोटा से छात्रों को वापस लाने के लिए योगी जी हों या हमारे मनोहर लाल जी । सब बसें भेज कर उन्हेः वापस लेकर वाहवाही लूट रहे हैं ।बिहार के नीतीश कुमार अभी प्लानिंग कर रहे हैं कि ऐसे वापस लाएं अपने देस से गये इन मजदूरों को । छात्रों को वापस लाने में कोई बुराई नहीं लेकिन इन मजदूरों ने क्या गुनाह कर रखा है ? इनको वापस लाने की चिंता किसी मुख्यमंत्री को क्यों नहीं ? यह सोचने वाली बात है । शैल्टर होम में प्रवासी मजदूर उदास हैं । घर और देस व गांव की याद आ रही है । कौन इन्हें पहुंचाने की पहल करेगा? कौन इनके दिल की सुनेगा ? रोज़ी रोटी की जद्दोजहद कहां तक और कितने कितने किलोमीटर दूर तक ले आई कि वापस लौटने में जिंदगी लग गयी । काश , अपने गांवों में कुटीर उद्योग फलते फूलते तो ये लोग अपनी मिट्टी की खुशबू छोड़ कर परदेस क्यों भागते ? सोचिए ।