कविता/ जंगल राज/ डॉ दलजीत कौर
जलाकर जंगल राजा
सेक रहा अलाव
चिड़िया मर रही रोज़
नहीं लेता कोई सार
मूँड़ ली गई भेड़ें
ऊन का चला व्यापार
चंद सियार ले गए
कंबल और लिहाफ़
ठगी रह गई गाय
“माँ” का मिला पुरस्कार
वफ़ादार कुत्ता हो गया
घोषित ग़द्दार
आँखे मूँद बैठा रहा कबूतर
बिल्ली कर गई शिकार
रिश्वत में परोसे गए
बत्तख़ और ख़रगोश
ठंड इतनी पड़ी
ठिठुर गया देश
ठंडा हुआ लहु
सर्द हो गई संवेदनाएँ
बर्फ़ हो गए इंसान
बढ़ने लगी क़ब्रें
मच गया हाहाकार
अंधा -बहरा हुआ राजा
वर्षों से ऐसा था
जंगल राज !!-डॉ दलजीत कौर, चण्डीगढ़।