लघुकथा/कहानी एक गाँव की

लघुकथा/कहानी एक गाँव की
मनोज धीमान।

एक गाँव था। उस गाँव में एक परिवार था। परिवार के मुखिया के चार बेटे थे। बेटों के नाम इस प्रकार थे - न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। उसी गाँव में एक और परिवार रहता था। उस परिवार के यहाँ भी एक बेटा था जिसका नाम गुमनाम था। उसकी हरकतें किसी गुंडे से कम न थी। बचपन से वह ऐसा नहीं था। लेकिन, वक़्त में बदलाव आने के साथ साथ उसमे में भी बदलाव आने लगा। जब से वह कार्यपालिका और विधायिका के संपर्क में आया था उसके हौंसले बढ़ने लगे थे। उसकी गुंडागर्दी और बढ़ने लगी थी। न केवल उसके गांववाले बल्कि आस-पास के गांववाले भी उससे भयभीत होने लगे थे। उसकी मनमर्जियां बढ़ने लगी थीं। वह फलने फूलने लगा था। ख़ुद भी मोटी कमाई करता और कुछ हिस्सा कार्यपालिका को खिलाने लगा। विधायिका से सम्बन्ध बढ़ने के साथ-साथ दबदबा बहुत बढ़ चुका था। विधायिका द्वारा पैसे के बदले उसके बल का उपयोग किया जाता। अपनी गुंडागर्दी की वजह से वह कई बार जेल गया। लेकिन, कार्यपालिका और विधायिका की मदद से कुछ ही दिनों बाद वह जेल से बेल पर बाहर आ जाता। हौंसले इतने बढ़ गए कि अब वह शरेआम हत्याएं भी करने लगा था। एक दिन उसने कुछ वर्दीधारियों को ही मौत के घाट उतार दिया। हर जगह बवाल मच गया। हर तरफ उसके विरुद्ध आवाज उठने लगी। आखिर उसे एक पुलिस एनकाउंटर में मार गिराया गया। कार्यपालिका और विधायिका इसे अपनी बड़ी जीत बता रहे थे। हर तरफ कार्यपालिका और विधायिका की जय जयकार सुनायी दे रही थी। न्यायपालिका एक कोने में और मीडिया किसी मदारी की डुगडुगी पर बंदर की भूमिका अदा कर रहा था।
एक गाँव था। उस गाँव में एक परिवार था।....
 -मनोज धीमान।