बटरोही: आंदोलनों से कथा साहित्य का विकास नहीं हुआ , कुछ हीरो जरूर बने /कमलेश भारतीय
बटरोही जी का इंटरव्यू पिछले वर्ष नैनीताल भ्रमण के दौरान किया था
आंदोलनों से कथा साहित्य का विकास नहीं हुआ । हां , कुछ लोग इनके बल पर हीरो जरूर बन गये । ये आंदोलन कुछ खास लेखकों का विकास करते रहे और प्रचार देते रहे । इससे ज्यादा कथा आंदोलनों का कोई योगदान नहीं ।
यह कहना है लक्ष्मण सिंह बिष्ट का जिन्हें हिंदी के लोग बटरोही के नाम से जानते हैं । नैनीताल आने से बहुत वर्ष पहले से मैं इनके सम्पर्क में रहा । पिछले वर्ष नैनीताल आकर भी बीमार हो जाने के चलते मुलाकात न हो पाई पर इस वर्ष घर से नैनीताल के लिए चलने के पहले क्षण से यह तय था कि बटरोही जी से मुलाकात करनी ही है । नैनीताल पहुंचते ही सम्पर्क किया और समय तय किया मुलाकात का । दोपहर माॅल रोड पर मिलने का । मिलते ही वे प्यार से घर चलने का आग्रह करते रहे पर मेरी पत्नी पहाड़ की ऊंचाई से डर गयीं । इस तरह एम्बेसी होटल में बैठे नैनी झील का नजारा देखते देखते सिलसिला शुरू हुआ सवाल-जवाब का ।
- मूल रूप से कहां से हैं आप ?
- अल्मोड़ा से लेकिन मेरी बुआ यहां रहती थीं तो पढ़ाई के लिए दस वर्ष की उम्र में नैनीताल आया और यहीं का होकर रह गया ।
-पढाई के बारे में बताइए ।
- नगरपालिका के सरकारी स्कूल से मिडल और गवर्नमेंट हाई स्कूल से दसवीं । फिर गवर्नमेंट इंटर काॅलेज से और बाद में देवा सिंह बिष्ट गवर्नमेंट काॅलेज से ग्रेजुएशन और एम ए हिंदी । पीएचडी की इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रो रामस्वरूप चतुर्वेदी के निर्देशन में ।
- किस विषय पर शोध किया ?
- कहानी में रूचि होने के चलते प्रेमचंद पूर्व कथा साहित्य विषय पर जो शोध ग्रंथ के रूप में प्रकाशित भी हुआ । मेरे परीक्षक प्रसिद्ध आलोचक डाॅ नामवर सिंह और डाॅ इंद्रनाथ मदान थे ।
- नौकरी कहां कहां की ?
- मेरा सौभाग्य रहा कि जिस देवा सिंह बिष्ट काॅलेज में हिंदी एम ए की , वहीं हिंदी प्राध्यापक बन कर पढाया भी । कुछ समय मिर्जापुर के निकट दुद्धि गांव में । फिर रूद्रपुर । फिर देवा सिंह बिष्ट काॅलेज जब कुमाऊं विश्वविद्यालय बना तब यहीं रीडर और प्रोफैसर । सन् 1997 में हिंदी पढाने हंगरी गया । पूरे चार वर्ष बहुत लगन से विदेशी छात्रों को पढाया । इसके बाद महात्मा गांधी विश्वविद्यालय , वर्धा में भी कुछ समय पर वर्धा में दिल नहीं लगा । नैनीताल याद आता । छोडछाड कर आ गया । सन् 2006 से सेवानिवृत । बस पठन पाठन और लेखन ।
- कौन सी महत्त्वपूर्ण कथा आलोचना पुस्तकें आपकी आईं ?
- अक्षर प्रकाशन से आई थी - कहानी रचना प्रक्रिया और स्वरूप । फिर नेशनल पब्लिशिंग हाउस से कहानी संवाद का दूसरा आयाम ।
- कथा आंदोलनों का कितना योगदान ?
- कथा आंदोलनों से हिंदी कथा साहित्य का विकास नहीं हुआ । कुछ खास लेखकों का प्रचार और विकास जरूर हुआ । नयी कहानी में त्रिमूर्ति - कमलेश्वर , मोहन राकेश और राजेंन्द्र यादव । नामवर सिंह ने परिंदे कहानी का उल्लेख कर निर्मल वर्मा का नाम चर्चित किया । संचेतन से डाॅ महीप सिंह चर्चा में आए तो अकहानी से रवींद्र कालिया । रचनाशीलता को गति देने की बजाय हीरो जरूर बन गये । लेखन सतत प्रक्रिया है । समांतर तब शुरू किया कमलेश्वर ने जब उन्हें लगा कि नयी कहानी पर उनकी पकड़ कमज़ोर हो रही है । वैसे सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे ।
- नामवर सिंह क्या इकलौते आलोचक माने जाते हैं ?
- जब कोई अच्छा काम करेगा तो चर्चा तो होगी । आप ही बताइए हिंदी कहानी के संदर्भ में दूसरा और आलोचक कौन ? यह अलग बात है कि नामवर सिंह जी ने व्याख्यान ज्यादा दिए और लिखा कम । उन जैसा अद्भुत आलोचक दूसरा नहीं हुआ । वैसे कथा पर कमलेश्वर , राजेंद्र यादव , डाॅ इंद्रनाथ मदान और परमानंद ने भी लिखा लेकिन नामवर सिंह से हर कोई अपनी कहानी पर लिखवाने के लिए लालायित रहता था ।
-कहानी पत्रिकाओं का योगदान कितना ?
- कहानी पत्रिकाएं न होतीं तो कथा मुख्य धारा में कैसे होती ? श्रीपतराय की कहानी पत्रिका का बहुत योगदान है । फिर अमृतराय की नयी कहानियां और सारिका का । ज्ञानोदय और अब नया ज्ञानोदय का भी कम योगदान नहीं । धर्मयुग की एक एक कहानी कमाल की होती थी
- पुरस्कारों पर क्या कहेंगे ?
- पुरस्कार प्रायोजित होते हैं - खासतौर पर हिंदी में ।
- आपको कौन कौन से पुरस्कार मिले ?
- चंद्रकुंवर बडथ्वाल पुरस्कार । वे सिर्फ अट्ठाइस वर्ष का जीवन जिए लेकिन साहित्य में बडा नाम कर गये । मसूरी की संस्था द्वारा सम्मानित और एक राष्ट्रीय समाचारपत्र द्वारा कुमाऊं गौरव सम्मान । भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिवर्ष संपादित भारतीय कहानियां में मैं हिंदी कहानियों का चयन करता हूं और इसके संपादन में शामिल । यह किसी सम्मान से कम नहीं ।
- डाॅ इंद्रनाथ मदान के बारे में क्या राय आपकी ?
- वे बडी सूक्तियों में बहुत बड़ा सत्य उद्गाटित कर देते थे ।
- हिंदी शिक्षण की और प्राध्यापकों की क्या स्थिति है ?
- लिखने पढ़ने और पठन पाठन की राजनीति करते हैं और पद के बल पर चर्चा में रहते हैं लेकिन जैसे ही पद से हटते हैं तो पोल खुल जाती है । अधिकांश ऐसे प्राध्यापक हैं जिनसे गहरी समझ की उम्मीद नहीं की जा सकती ।
- आपने नैनीताल पर भी एक पुस्तक लिखी है जो मुझे प्रेमपूर्वक भेजी थी । उसका विचार कैसे आया ?
- गर्भगृह में नैनीताल । यह है पुस्तक । संस्मरणात्मक । दस वर्ष की उम्र में नैनीताल आ गया था और सारी पढाई लिखाई यहीं । कथात्मक शैली अपनाई है इसमें । इसके अधिकांश अंश नैनीताल के काफल ट्री ब्लाॅग पर बहुत पसंद किए गये ।
- अब नैनीताल कैसा हो गया आपकी नजर में ?
- लगता है जैसे इस नैनीताल में रह नहीं सकते । पहले माॅल रोड पर पैदल घूम सकते थे और कोई साइकिल तक नहीं आ सकती थी लेकिन अब तो कारें और ट्रैफिक इतना कि डर लगता है चलते । लोग दूर दूर से पहाड़ की हवा खाने आते हैं और यहां की खराब कर जाते हैं ।
और थोड़े से हंसते हैं । मुझे और मेरी पत्नी की ओर देखकर । क्या मीठी शरारत । शुक्र है कि उत्तराखंड की राजधानी नहीं बना नैनीताल । देहरादून ने बचा लिया । यदि राजधानी बन जाता तो हालात और खराब होते ।
- कोई नयी पुस्तक आ रही है ?
- जी । पहाड़ की जड़ें शीर्षक से कथा संग्रह । इसका प्रकाशन दखल प्रकाशन के अशोक पांडेय कर रहे हैं । इसमें चार पांच लम्बी कहानियां हैं मेरी ।
- नये रचनाकारों को कोई मंत्र ?
- मित्र के नाते इतना ही कहना है कि लिखते रहें । अपनी जड़ों से जुड़े रहें । यदि जड़ों से जुड़े न रहे तो न जीवन रहेगा और न ही लेखन संभव होगा ।