कमलेश भारतीय की लघुकथा `डर'
वह साहब सुबह उठा । नहा धोकर , नाश्ता कर ऑफिस के लिए तैयार होने लगा कि अचानक एक जूते का तस्मा कसते कसते टूट गया । इतना समय नहीं बचा था कि बाज़ार जाकर नये तस्मे खरीद लाता । गाड़ी आकर गेट पर लग गयी थी । ड्राइवर हार्न बजाए जा रहा था । जैसे तैसे जूतों के पुराने तस्मे कसे और यह सोचकर रवाना हुआ कि शाम को लौटते वक्त नये तस्मे खरीद लेगा ।
दिन भर ऑफिस में बैठे बैठे उसका ध्यान बार बार अपने एक टूटे तस्मे पर जाता रहा । वह मेज़ के पीछे जूतों को ज्यादा से ज्यादा छिपाने में लगा रहा । दूसरे कर्मचारी देखेंगे तो क्या सोचेंगे ? फिर वह अपने पर मुस्कुराया भी कि हम ज़िंदगी भर यही सोचते रहते हैं कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचेंगे ? दूसरे हमारी कोई कमी या कमज़ोरी देख लेंगे तो कैसा लगेगा ? इस बात पर गौर किया उसने ।
ऑफिस से छुट्टी हुई । साहब गाड़ी में सवार सीधे एक बढ़िया मार्केट में पहुंचे । बड़े बड़े शो रूम । चमचमातीं , दूधिया लाइट्स । बाहर मज़ेदार पकवान की रेहड़ियां । खूब भीड़ । साहब एक शो रूम में घुसा । सेल्समैन भागा आया -कहिए साहब? कौन से ब्रांड के नये डिजायन के जूते दिखाऊं ?
-मुझे जूते नहीं , सिर्फ तस्मे चाहिएं । अभी सोफे पर बैठते बैठते कहा साहब ने ।
सेल्समैन ने चौंक कर देखा -साहब । यहां सिर्फ नये जूते बिकते हैं । साॅरी । आप अगले शो रूम में पता कीजिए ।
दूसरे शो रूम वाले सेल्समैन ने सोफे पर बैठने का अवसर भी नहीं दिया ।
तुरंत कहा -आप भी कमाल करते हो ? जाइए । यहां कोई तस्मे एक्स्ट्रा नहीं बेचे जाते । आप चाहो तो नये जूते खरीदने के लिए बैठ सकते हो । नहीं तो समय खराब मत कीजिए ।
शो रूम और भी थे । चमचमाते पर बिना पुराने जूतों के । वहां पुराने का कोई काम नहीं । एक शो रूम के सेल्समैन ने सबसे ज्यादा होशियारी दिखाई -क्या रखा है इन पुराने डिजाइन के जूतों में जिसके तस्मे ढूंढते फिर रहे हो ? नये दिखाता हूं । खरीदिए और सारी प्राॅब्ल्म साल्व । न रहेंगे पुराने जूते न ढूंढेंगे तस्मे ।
बाहर आया । देखा कि रेहड़ियों पर लोग पेपर ग्लास या पेपर प्लेट्स में मज़े में खा पी कर डस्टबिन में फेंक पैसे चुकता कर जा रहे हैं । अचानक तस्मों ने जैसे मुंह चिढ़ा कर कहा -बाबू मोशाॅय , समझे नहीं क्या? यह है नया कल्चर । यानी -यूज एंड थ्रो । ओल्ड से नो मोह । समझे क्या ?