लघुकथा/अनकहा सा कुछ

-*कमलेश भारतीय
-सुनो!
-कहो !
-मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ ।
-कहो न फिर !
-समझ नहीं आता कैसे कहूं, किन शब्दों में कहूं?
-अरे! तुम्हें भी सोचना पड़ेगा?
-हां ! कभी कभी हो जाता है ऐसा !
-कैसा ?
-दिल की बात कहना चाहता हूँ पर शब्द साथ नहीं देते !
-समझ गयी मैं !
-क्या.. क्या... समझ गयी तुम ?
-अरे रहने भी दो ! कब कहा जाता है सब कुछ !
-बताओ तो क्या समझी ?
-कुछ अनकहा ही रहने दो ।
-क्यों ?
-ऐसी बातें बिना कहे, दिल तक पहुंच जाती हैं !
-फिर तो क्या कहूं ?
-अनकहा ही रहने दो !
-क्यों?
-तुमने कह दिया और दिल ने सुन लिया! अब जाओ !
-क्यों ?
-शर्म आ रही है बाबा! अब जाओ !
-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी।