यादें जालंधर कीं- भाग पांच
अपनी पीढ़ी की बात
-कमलेश भारतीय
आज फिर मन जालंधर की ओर उड़ान भर रहा है। आज अपनी पीढ़ी को याद करने जा रहा हूँ । जैसे कि रमेश बतरा ने अपने एक कथा संग्रह में हम सबके नाम लिखकर कहा था कि जिनके बीच उठते बैठते मैं इस लायक बना! मैं भी आज अपने सब मित्र लेखकों को याद करते विनम्रता से यही बात दोहराना चाहता हूँ कि आप सबको मैं इसीलिए याद कर रहा हूँ कि आप सबकी संगत में कुछ बन पाया। आप सबको मैं भूल नहीं पाया। मेरी हालत ऐसी हो गयी है :
जैसे उड़ी जहाज को पंछी
उड़ी जहाज पे धावै!
मुझे अपनी पीढ़ी के रचनाकार आज भी अपने परिवार के सदस्यों जैसे लगते हैं। जब भी कोई मौका जालंधर जाने का बनता है, मैं अपना बैग उठाकर वहाँ पहुँच जाता हूँ। सबसे पहले मैं हिंदी मिलाप के साहित्य संपादक सिमर सदोष को याद कर रहा हूँ जो आजकल अजीत समाचार में साहित्य संपादक हैं। इनसे हम नये लेखक मिलने जाते और इनकी कमीज़ को खींच खींच कर अपनी रचनायें बच्चों की तरह सौंपते और वे बड़े धैर्य से हमारी रचनायें लेते और प्रकाशित करते। हिंदी मिलाप संघ के हम सब सदस्य भी थे। धीरे धीरे मुझे इसी मिलाप संघ के प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंप दी। इनके साथ अमृतसर, जालंधर हिंदी मिलाप के हरे भरे लाॅन में और अपने शहर नवांशहर में साहित्यिक आयोजन किये जिनकी कवरेज पूरे पन्ने पर प्रकाशित होती थी। यहीं मैं कमलेश कुमार भुच्चर से कमलेश भारतीय बना। कुछ नाम याद आ रहे हैं- रमेश बतरा,गीता डोगरा, कृष्ण दिलचस्प, रमेश शौंकी, रत्ना भारती (जम्मू), फगवाड़ा से जवाहर धीर आज़ाद, शिमला (हिमाचल) से कुमार कृष्ण जो बाद में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहे और स्वर्ण पदक भी पाया था। आजकल वे पंचकूला रहते हैं और दो तीन बार शिमला के कार्यकमों में हम पिछले दो चार साल में फिर मिले। रमेश बतरा तो मेरा ऐसा मित्र बना जिसका जन्म तो जालंधर का था लेकिन वह पहले करनाल में नौकरी करता रहा, फिर उसकी ट्रांस्फर चंडीगढ़ हो गयी। इस तरह मेरा दूसरा घर चंडीगढ़ भी बन गया। कभी हम इकट्ठे ही सिमर सदोष के घर रहते और रचना भाभी हमारे लिए खाना बनातीं। वे खुद भी लेखिका थीं। अब वे नहीं हैं और उनकी कमी जालंधर जाने पर हर बार खलती है। सिमर जब कभी हम पर किसी बात पर नाराज़ हो जाते तो रचना भाभी ही सब मामला संभालतीं! इसीलिए मैने पिछले वर्ष इनकी पंजाब साहित्य अकादमी के समारोह की अध्यक्षता करते कहा था कि सिमर एक ऐसा शख्स है जिसे बहुत नाजुक चीज़ की तरह हैंडल विद केयर रखना पड़ता है। पहले हमारी भाभी रचना संभाल लेती थी। अब इनकी बहूरानी ने को सब संभालना पड़ता है। वही इनकी पंकस अकादमी को भी पृष्ठभूमि में संभाल रही है। मंच पर सारी भागदौड़ वही करती दिखाई देती है। सिमर अपनी संस्था को पिछले छब्बीस साल से चला रहे हैं जिसके मंच पर डाॅ प्रेम जनमेजय, लालित्य ललित, नलिनी विभा नाजली, आशा शैली, जवाहर आजाद, सुरेश सेठ, मोहन सपरा न जाने कितने लेखक सम्मानित हो चुके हैं। मुझे प्यार से दो दो बार सम्मानित किया। एक बार जब मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और दूसरी बार दो साल पहले। सिमर का असली इरादा तो मुझे जालंधर खींच लाने का होता है। इस वर्ष अस्वस्थता के कारण जा नहीं पाया नहीं तो मेरी क्रिकेट की तरह हैट्रिक बन जाती !
खैर! यहीं मेरी दोस्ती तरसेम गुजराल से हुई जो आज तक कायम है। वे उन दिनों शेखां बाजार में रहते थे और इनके पापा गुजराल बैग हाउस चलाते थे और ये भी अपने पिता का हाथ बंटाया करते थे। इनका घर भी दुकान के ऊपर ही था जो सिमर घर के बिल्कुल पास था। आज तरसेम गुजराल कम से कम अस्सी किताबें अपने नाम कर चुके हैं और अनेक संकलनों का संपादन भी किया है। अनेक पुरस्कार भी इनके नाम है। मज़ेदार बात यह कि इनके संपादित प्रथम कथा संग्रह -खुला आकाश में सबसे पहली कहानी मेरी ही थी-अंधेरे के कैदी। इसमें दस रचनाकार शामिल थे जिनमें रमेंद्र जाखू जो बाद में आई ए एस बने और हरियाणा में अपनी सेवायें दीं। आजकल सेवानिवृत्त होकर पंचकूला के मनसा देवी कम्लैक्स में रहते हैं। बीच में हरियाणा उर्दू अकादमी का अतिरिक्त कार्यभार भी संभाला। बहुत अच्छे शायर भी हैं और आवाज़ भी खूब है! जिन दिनों चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक रहा इनके सरकारी आवास पर हर माह हम काव्य गोष्ठी में मिलते। दैनिक ट्रिब्यून में शुरू शुरू में मैंने एक रविवार यह बात अपने सहयोगियों को बताई तो वे मेरी गप्प मानने लगे और कहा कि यदि वह आपका दोस्त है तो ऑफिस आभी बुलाओ तो माने ! मैंने ऑफिस के फोन पर यही बात जाखू को कहते कह दिया कि यहाँ हमारी दोस्ती का इम्तिहान लिया जा रहा है। आप मुझे मिलने आ जाओ। उस दिन ड्राइवर की छुट्टी होने के बावजूद जाखू खुद गाड़ी ड्राइव करते आ पहुंचे और कहा कि देख लो मुझे, मैं ही रमेंद्र जाखू हूँ जो भारती का दोस्त है। सब हक्के बक्के रह गये और मेरे कहने पर तरन्नुम में एक ग़ज़ल भी सुनाई। चाय की प्याली बड़ी विनम्रता से पीकर गये। वे हरियाणा हैफेड के भी निदेशक रहे। इनकी पत्नी शकुंतला भी हरियाणा में आई ए एस रहीं जो राजनीतिज्ञ सुश्री सैलजा की कजिन हैं। इस तरह हिसार आने से पहले से ही जाखू के मुंह से सैलजा की जानकारी मिली। खुला आकाश में रमेश बतरा भी शामिल थे जो बाद में पहले चंडीगढ़ से शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड की मासिक पत्रिका साहित्य निर्झर का संपादन करते रहे बाद में मुम्बई से निकलने वाली चर्चित पत्रिका सारिका के उपसंपादक बने और जब यह पत्रिका दिल्ली आई तब हमारी मुलाकातें फिर शुरू हुईं और इस तरह मैं दिल्ली के लेखको से भी जुड़ पाया जिनमें आज भी डाॅ प्रेम जनमेजय, राजी सेठ, रमेश उपाध्याय , महावीर प्रसाद जैन, सुरेंद्र सुकुमार, जया रावत,हरीश नवल, बलराम, अरूण बर्धन, रमेश उपाध्यायऔर अन्य अनेक मित्र बने ! जया रावत का बाद में रमेश बतरा से विवाह हो गया लेकिन जोड़ी ज्यादा लम्बे समय तक जमी नहीं और रमेश अब इस दुनिया में नहीं ओंर जया भाभी गाजियाबाद में बच्चों के साथ रहती हैं और एक एन जी ओ भी चलाती हैं । सारिका के संपादक कन्हैयालाल नंदन से भी मुलाकात यही हुई। मेरी अनेक कहानियां सारिका में आईं जिसमें प्रकाशित होना बड़े गर्व की बात होती थी। फिर नंदन जी के साथ ही रमेश संडे मेल साप्ताहिक में चला गया, फिर वहाँ भी मेरी लघुकथाओं को स्थान मिलता रहा। शायद आज जालंधर की नयी अपनी पीढ़ी को यही विराम देना पड़ेगा। बाकी कल मिलते हैं। जैसे रमेश कहता था कि आज के जय जय!
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