पुस्तक समीक्षा/समय पर चोट करती कविताएं मनोज शर्मा की/कमलेश भारतीय द्वारा

पुस्तक समीक्षा/समय पर चोट करती कविताएं मनोज शर्मा की/कमलेश भारतीय द्वारा

मनोज शर्मा जब एक काॅलेज छात्र था तब से परिचय और संबंध बना चला आ रहा है । हम कहीं भी रहे, जुड़े रहे एक दूसरे से । अनेक वर्षों बाद अचानक पंचकूला में फिर मिले और मैं हिसार लौट आया , वह जम्मू चला गया   पर हमारी बात और साहित्य पर चर्चा होती रहती है और हम अपनी पुस्तकों का आदान प्रदान भी करते हैं । इन दिनों बड़े चाव से मनोज शर्मा ने अपने इस बड़े भाई को नया कविता संग्रह मील पत्थर बुला रहा है भेजा ।
पहले यह साफ कर दू कि मैं कविता का बहुत बढ़िया पाठक तो हूं पर कवि कर्म से काफी दूर । मनोज की कविताओं का निरंतर पाठक हूं । जुड़ा आ रहा हूं और सबसे पहली बात,जो इस संग्रह से गुजरने के बाद मन में आई वह यह कि मनोज को पंजाब का कवि मानें तो सच कहूं उतना मान/सम्मान नहीं मिला जिसका वह हकदार है । इसीलिए वह लिखता है : 
पता नहीं 
बचेगा कहीं 
नाम वह एक
मनोज शर्मा 
छोटे से छोटे फांट में भी । 

जो कविताएं इसमें शामिल हैं , मैं दुआ देता हूं और दावा भी कर देता हूं कि मनोज शर्मा का नाम बचेगा और है भी । इन कविताओं में हमारे निर्मम समय पर बड़ी क्रूर चोट की है । स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर कुछ इन शब्दों में संकेत समझिए : 
हम जब एक शत्रु समय में जी रहे हैं 
तो सबसे पहले 
हमारे शब्दों पर नज़र रखी
जा रही है 
गौरतलब है कि यह नज़र 
किसी एक जगह से नहीं उठती
 हजारों हजार मोबाइल थामे हाथ होते हैं ,,,,
इसका दूसरा रूप बोल ही दूंगा में देखिए :
चाहूं या न चाहूं 
अखबार की उन खबरों को पढ़ना ही है
जो दरहकीकत झूठी हैं ,,,
चाहूं न चाहूं 
किसी अघोषित आदेश के तहत 
थाली पर बजानी ही है कड़छी,,,

कवियों के घमासान पर शानदार कविता है फेसबुक पर कविता । एक नये कवि की कविता का पाठ किसी अभिनेता द्वारा किये जाने से चर्चित कवि खूब हंगामा मचाये हैं लेकिन व्यंग्य यह कि कविता खुद अभिनेता ने लिख नये कवि के नाम पर पढ़ दी थी ,, बहुत व्यंग्यात्मक ।

धार्मिक उन्माद फैलाने वालों पर चोट कुछ ऐसे : 
शांति 
बहुत बड़ी चीज़ है शांति ।चाहिए,जैसे भी हो , सभी को 
अपने यहां जितने हैं डेरे
बांटते है 
ठेके पर शांति ,,
मनोज की कुछ पंक्तियां 
सपनों की आंच भी गर्मा नहीं पा रही 
,,,,,
अचानक हमारी भाषा से छिन जाता है माधुर्य ,,,
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रास्ता भूलने लगो तो खुद में तलाशो 
बचपन में मां ने कहा।
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भावुकता कभी भी भयानक हाहाकार में बदल सकती है ,, 
,,,,,,
बेटे 
मोहल्ले वाले जिस वट-वृक्ष पे 
चढ़ाते रहे जल 
बांधते रहे मौली के धागे 
आज वहां केसरी इश्तिहार टंगे हैं 
आओ न , हमें हमारे  
वट-वृक्ष से मिलाओ ,,,,
,,,,

कुछ प्रेम का अहसास करवाती कविताएं पत्नी के नाम संबोधित हैं तो कुछ दोस्तों के नाम । कुल मिलाकर एक सुखद अहसास हुआ इस संग्रह को पढ़कर । मनोज को तब से जानता हूं जब वह नवांशहर के काॅलेज में काव्य पाठ प्रतियोगिता में आता था और इनकी प्राध्यापिका आनी हमारी भाभी अहिंसा पाठक के घर खूब लम्बी गपशप होती साहित्य पर । मनोज ने बहुत लम्बी यात्रा तय की विचार की, संवेदना और कविता की समझ बनाता और बढ़ाता चला गया । मुझे इसकी यात्रा से बहुत खुशी है   यह संग्रह मनोज शर्मा को खोने नहीं देगा । बहुत बहुत बधाई । एक बड़े भाई की दुआएं कि लिखो और ज्यादा ...