स्त्री विमर्श का दिन: महिला दिवस/कमलेश भारतीय द्वारा
आठ मार्च आ गयी है यानी स्त्री विमर्श का दिन । महिला दिवस आठ मार्च को होता है न । हर वर्ष आता है । जैसी कि हमारी आदत या स्वभाव है कि हम एक दिन चर्चा करते हैं फिर भूल जाते हैं अगले वर्ष के लिए । दिन चाहे कोई भी हो , किसी का भी हो । एक दिन मना कर अपने कर्त्तव्य से इतिश्री कर लेते हैं । यही हाल स्त्री विमर्श का है । एक दिन सारी चिंताएं सताती हैं । फिर नया दिन । नयी बात । महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में स्त्री विमर्श को सुनने का अवसर मिला । हरियाणा की चर्चित लेखिकाओं को आमंत्रित किया गया था । सवाल वही । कैसी भाषा होनी चाहिए ? ग्रामीण परिवेश लेखन से गायब क्यों होता जा रहा है ? परिवार व लेखन का संतुलन कैसे बना कर चलती हैं ? आदि आदि । परत दर परत ।
जवाब भी इस तरह रहे कि कपड़ों से लेकर विचारों तक पुरूष और नारी में असमानता तो व्याप्त है समाज में लेकिन भाषा अलग कहां ? फिर भी दिल की बोली ही हमारी बोली । जो दिल कहे वही । कभी लिखा गया
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजे होगा गान
निकल कर आंखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान ।
अब कह सकते हैं :
आहत होगी पहली कवयित्री
प्रतिरोध में जन्मी होगी कविता ,,,
(रश्मि बजाज की कविता का अंश)
नारी प्रतिरोध में कविता यानी लेखन कर सकती है । कर रही है । इसी को स्त्री विमर्श कहा जा रहा है । कभी धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन तक वर्जित था स्त्री के लिए । आज वह स्वयं ग्रंथ लिख रही है । स्त्री नाम के गृहस्थी के दो पहियों में से ज्यादा चलना व खटना पड़ता है और अगर गृहकार्य में पुरूष सहयोग दे भी तो इसे अहसान बताया कर जताया जाता है न कि सहयोग । नारी सारा दिन काम करने के बावजूद बेरोजगार या घर की शोभा और पुरुष घर का मालिक । काम में बात बंटाना अपमान जैसा ।नारी की राह में अनेक रुकावटें हैं लेकिन इनको पार भी नारी को ही करना है । नारी सृष्टि का श्रृंगार जो है । यों यह माना गया कि स्त्री की भाषा अलग होगी ही । यह बात लगातार उठी कि जिस प्रदेश और देश में आज भी सत्तर प्रतिशत ग्रामीण जनता है वहां के लेखन से ग्रामीण परिवेश गायब क्यों होता जा रहा है ? जो जिया ही नहीं वह लिखा भी कैसे जाए ? गांव से आए छात्र भी शहर के मोह में पड़ते जा रहे हैं । गांव को भूलते जा रहे हैं । ग्रामीण परिवेश व उस पर आधारित लेखन हाशिए पर चला गया है । गांव अदृश्य होता जा रहा है । लोक कला और लोक संस्कृति की ओर ध्यान देने की जरूरत भी सामने आई । चलिए महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय ने रंग कलम उत्सव से इस बहस को आगे तो बढ़ाया ।
जयशंकर प्रसाद की लिखी पंक्तियों पर फिर से विचार करने की जरूरत है :
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
नहीं नारी शक्ति है । सिर्फ श्रद्धा से काम नहीं चल सकता । नारी का आसमान और उसकी उड़ान बहुत ऊंची है । उसके पंख खोल दो । उड़ने दो अपने मनचाहे आकाश में