समाचार विश्लेषण/पहाड़ का दुख फिर फूटा 

समाचार विश्लेषण/पहाड़ का दुख फिर फूटा 
कमलेश भारतीय।

-कमलेश भारतीय 
उत्तराखंड में फिर जल तांडव हुआ और पहाड़ का दुख फूटा । पहले भी एक बड़ी त्रासदी झेल चुके उत्तराखंड को फिर विपत्ति ने घेर लिया चमोली में । सारा देश इसके लिए चिंतित हो उठा । मुश्किल से तो पहले घाव भरे थे और अब फिर ऐसा दर्द दे दिया प्रकृति ने कि संभलते संभलते वक्त लगेगा । पूरे सात साल बाद केदारनाथ जैसा जल तांडव देखने को मिला । कम से कम डेढ़ सौ लोगों के बह जाने का अनुमान यानी जल समाधि । ग्लेशियर क्या टूटा , आदतों का पहाड़ टूट पड़ा । पर्यावरण के लिए खतरनाक माने जा रहे दो बिजली प्रोजेक्ट भी तबाह हो गये । 

असल में प्रकृति बहुत बार संदेश देती है लेकिन मनुष्य अपने लालच में इन संदेशों को अनसुना कर देता है और आखिरकार प्रकृति अपना गुस्सा जाहिर करती है । यह प्रकृति का गुस्सा ही है जो ग्लेशियर टूटने की घटना हुई । बार बार यह बात कही भी जाती है कि प्रकृति मनुष्य की हर जरूरत पूरी करती है लेकिन उसके लालच को पूरा नहीं कर सकती । मनुष्य लालची होता जा रहा है और प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखा कर समय-समय पर सबक सिखाती रहती है । 

मुझे पहाड़ों पर जाने और घूमने का बहुत शौक है और पहाड़ों को किस  तरह काट काट कर वहां बड़े बड़े होटल्स और कार्यालय बनाये जा रहे है, यह हर पहाड़ या कहिए कि टूरिस्ट वाले क्षेत्र में देखने को मिल जाता है । मनाली हो या नैनीताल , शिमला हो या डल्हौजी , सब जगह मनुष्य का लोभ देखने को मिलता है । अंग्रेजों ने भारत की गर्मी न सहन कर पाने के कारण डल्हौजी या मंसूरी जैसे मनोरम पर्वतीय क्षेत्र खोजे थे और हिमाचल में तो दो राजधानियों का प्रावधान भी रहा-धर्मशाला और शिमला । गर्मियों में धर्मशाला तो सर्दियों में शिमला । पर हमने इन मनोरम पर्वतीय क्षेत्रों को व्यापार का केंद्र बनाने की भूल की । कितने बड़े बड़े होटल्स बना लिये । गगनचुम्बी होटल्स । शिमला में प्राकृतिक छटा घटती जा रही है और व्यावसायिक केंद्र पांव पसारते जा रहे हैं । दूर दूर तक बिल्डिंग्स ही दिखती हैं । प्रकृति तो इनकी ओट में मुंह छिपाये रोती दिखाई देती है । धर्मशाला में भी कुछ अलग दृश्य नहीं । रास्ते भर प्रकृति से सैलानी खिलवाड़ करते चलते हैं । जहां देखा , वहीं स्वच्छता अभियान को धत्ता बताते चलते हैं । जो गंगा गंगोत्री से निकलती है , वही गंगा मैदान में आते आते पवित्र नहीं रह जाती बल्कि पानी गंदला होता जाता है । न हमें पहाड़ की चिंता है और न ही नदियों की । यहां तक कि अपने अपने गांवों के ताल तलैयों की । गांवों में न पनघट रहे और न तालाब । फिर गर्मी में पानी को तरसेंगे ही । 

पहाड़ों को काटना जारी है और प्रकृति की नाराजगी भी सहनी पड़ रही है । पर क्या कहें , शर्म मगर हमें नहीं आती । हमारा लोभ कम नहीं होता । हम पेड़ों को काटते जा रहे हैं और वन क्षेत्र घटता जा रहा है । इसी कारण पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है ।  सुंदरलाल बहुगुणा और मेधा पाटेकर ध्यान दिलाते हैं तो सरकारें इन्हें ही उलझा लेती हैं । पर्यावरण प्रेमी होना भी गुनाह बनने लगता है । 
 

देखो ओ दीवानो 
तुम प्रकृति पर जुल्म न करो 
जुल्म करोगे तो खुद भी 
कहां बच पाओगे ? 

 

कोरोना काल में प्रकृति कुछ शुद्ध हुई थी और चंडीगढ़ से पहाड़ बहुत खूबसूरत दिखने लगे थे लेकिन फिल वही प्रदूषण शुरू हो चुका है ।